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लोकव्यवस्था
२. संवेदनाद्वैतवादी क्षणिक परमाणुरूप अनेक ज्ञानक्षणोंका पृथक् पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करते हैं । इनके मलसे ज्ञानसंतान ही अपनी-अपनी वासनाओंके अनुसार विभिन्न पदार्थोंके रूपमें भासित होती हैं ।
३. एक ज्ञानसन्तान माननेवाले भी संवेदनाद्वैतवादी हैं ।
बाह्यार्थ की इस विचारधाराका आधार यह मालूम होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी कल्पनाके अनुसार पदार्थोंमें शब्द-संकेत करके व्यवहार करता है । जैसे एक पु-तकको देखकर उस धर्मका अनुयायी उसे 'धर्मग्रन्थ' समझकर पूज्य मानता है, पुस्तकाध्यक्ष उसे अन्य पुस्तकोंकी तरह एक 'सामान्य पुस्तक' समझता है, तो दुकानदार उसे 'रद्दी' के भाव खरीदकर उससे पुड़िया बाँधता हैं, भंगी उसे 'कूड़ा कचड़ा' समझकर झाड़ देता है और गाय-भैंस आदि उसे 'पुद्गलोंका पुंज' समझकर 'घास' की तरह खा जाते हैं । अब आप विचार कीजिये कि पुस्तकमें धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी, कचरा और एक खाद्य आदिकी संज्ञाएँ तत् - तत् व्यक्तियोंके ज्ञानसे ही आयी हैं, अर्थात् धर्मग्रन्थ पुस्तक आदिका सद्भाव उन व्यक्तियोंके ज्ञानमें है, बाहर नहीं । इस तरह धर्मग्रन्थ और पुस्तक आदिकी व्यावहारिक सत्ता है, पारमार्थिक नहीं । यदि इनकी पारमार्थिक सत्ता होती तो बिना किसी संकेत और संस्कारके वह सबको उसी रूपमें दिखनी चाहिए थी । अतः जगत् केवल कल्पनामात्र है, उसका कोई बाह्य अस्तित्व नहीं ।
बाह्य पदार्थोंके स्वरूपपर जैसे-जैसे विचार करते हैं- उनका स्वरूप एक, अनेक, उभय और अनुभय आदि किसी रूपमें भी सिद्ध नहीं हो पाता । अन्ततः उनका अस्तित्व तदाकार ज्ञानसे ही तो सिद्ध किया जा सकता है । यदि नीलाकार ज्ञान मौजूद है, तो बाह्य नीलके माननेकी क्या आवश्यकता है ?" और यदि नीलाकार ज्ञान नहीं है तो उस बाह्य नीलका अस्तित्व ही कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? अतः ज्ञान ही बाह्य और आन्तर, ग्राह्य और ग्राहक रूपमें स्वयं प्रकाशमान है, कोई बाह्यार्थ नहीं है ।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि -ज्ञान या अनुभव किसी पदार्थका ही तो होता है | विज्ञानवादी स्वप्नका दृष्टान्त देकर बाह्यपदार्थका लोप करना चाहते हैं । किन्तु स्वप्नकी अग्नि और बाह्य सत् अग्निमें जो वास्तविक अन्तर है, वह तो एक छोटा बालक भी समझ सकता है । समस्त प्राणी घट पट आदि बाह्य पदार्थों से
१. "धियो नीलादिरूपत्वे बाह्योऽर्थः किंप्रमाणकः ?
धियो नीलादिरूपत्वे स तस्यानुभवः कथम् ॥”
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- प्रमाणवा० ३।४३३ ।
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