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जैनदर्शन स्वभावके अनुसार प्रतिक्षण परिवर्तित होते जा रहे हैं । जब इस प्रकारकी स्वाभाविक समभूमिका द्रव्योंकी स्वीकृत है, तब यह अनधिकार चेष्टासे इकट्ठ किये गये परिग्रहके संग्रहसे प्राप्त विषमता, अपने आप अस्वाभाविक और अप्राकृतिक सिद्ध होती जाती है। यदि प्रतिबुद्ध मानव-समाज समान अधिकारके आधारपर अपने व्यवहारके लिए सर्वोदयकी दृष्टिसे कोई भी व्यवस्थाका निर्माण करते हैं तो वह उनकी सहजसिद्ध प्रवृत्ति ही मानी जानी चाहिए। एक ईश्वरको जगन्नियन्ता मानकर उसके आदेश या पैगामके नामपर किसी जातिकी उच्चता और विशेषाधिकार तथा पवित्रताका ढिंढोरा पीटना और उसके द्वारा जगत्में वर्गस्वार्थकी सृष्टि करना, तात्त्विक अपराध तो है ही, साथ ही यह नैतिक भी नहीं है। इस महाप्रभुका नाम लेकर वर्गस्वार्थी गुटने संसारमें जो अशान्ति युद्ध और खूनकी नदियाँ बहाई हैं उसे देखकर यदि सचमुच कोई ईश्वर होता तो वह स्वयं आकर अपने इन भक्तोंको साफ-साफ कह देता कि 'मेरे नामपर इस निकृष्टरूपमें स्वार्थका नग्न पोषण न करो।' तत्त्वज्ञानके क्षेत्रमें दृष्टि-विपर्यास होनेसे मनुष्यको दूसरे प्रकारसे सोचनेका अवसर ही नहीं मिला। भगवान् महावीर और बुद्धने अपने-अपने ढंगसे इस दुर्दष्टिकी ओर ध्यान दिलाया, और माननको समता और अहिंसाकी सर्वोदयी भूमिपर खड़े होकर सोचनेकी प्रेरणा दी। जगत्के स्वरूपके दो पक्ष : १ विज्ञानवाद : ___ जगत्के स्वरूपके सम्बन्धमें स्थूल रूपसे दो पक्ष पहलेसे ही प्रचलित रहे हैं । एक पक्ष तो इन भौतिकवादियोंका था, जो जगत्को ठोस सत्य मानते रहे । दूसरा पक्ष विज्ञानवादियोंका था, जो संवित्ति या अनुभवके सिवाय किसी बाह्य ज्ञेयकी सत्ताको स्वीकार नहीं करना चाहते । उनके मतसे बुद्धि ही विविध वासनाओंके कारण नाना रूपमें प्रतिभासित होती है। विशप, वर्कले, योम और हंगल आदि पश्चिमी तत्त्ववेत्ता भी संवेदनाओंके प्रवाहसे भिन्न संवेद्यका अस्तित्व नहीं मानना चाहते । जिस प्रकार स्वप्नमें बाह्य पदार्थोके अभावमें भी अनेक प्रकारके अर्थक्रियाकारी दृश्य उपस्थित होते हैं उसी तरह जागृति भी एक लम्बा सपना है । स्वप्नज्ञानकी तरह जागृतज्ञान भी निरालम्बन है, केवल प्रतिभासमात्र है। इसके मतसे मात्र ज्ञानकी ही पारमार्थिक सत्ता है। इनमें भी अनेक मतभेद हैं
१. वेदान्ती एक नित्य और व्यापक ब्रह्मका ही पारमार्थिक अस्तित्व स्वीकार करते हैं। यही ब्रह्म नानाविध जीवात्माओं और घट-पटादि बाह्य अर्थोके रूपमें प्रतिभासित होता है। १. "अविभागोऽपि बुद्धयात्मा विपर्यासितदर्शनैः ।
ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥"-प्रमाणवा० ३।४३५ ।
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