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लोकव्यवस्था
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विचारणीय बात इतनी ही है कि एक ही तत्त्व परस्पर विरुद्ध चेतन और अचेतन दोनों रूपसे परिणमन कर सकता है क्या ? एक ओर तो ये जड़वादी हैं जो जड़का परिणमन चेतनरूपसे मानते हैं, तो दूसरी ओर एक ब्रह्मवाद तो इससे भी अधिक काल्पनिक है, जो चेतनाका ही जड़रूपसे परिणमन मानता है। जड़वादमें परिवर्तनका प्रकार, अनन्त जड़ोंका स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार करनेसे बन जाता है। इसमें केवल एक ही प्रश्न शेष रहता है कि क्या जड़ भी चेतन बन सकता है ? पर इस अद्वैत चेतनवादमें तो परिवर्तन भी असत्य है, अनेकत्व भी असत्य है, और जड़ चेतनका भेद भी असत्य है। एक किसी अनिर्वचनीय मायाके कारण एक ही ब्रह्म जड़-चेतन नानारूपसे प्रतिभासित होने लगता है। जड़वादके सामान्य सिद्धान्तोंका परीक्षण विज्ञानकी प्रयोगशालामें किया जा सकता है और उसकी तथ्यता सिद्ध की जा सकती है। पर इस ब्रह्मवादके लिए तो सिवाय विश्वासके कोई प्रबल युक्तिबल भी प्राप्त नहीं है। विभिन्न मनुष्योंमें जन्मसे ही विभिन्न रुझान और बुद्धिका कविता, संगीत और कला आदिके विविध क्षेत्रोंमें विकास आकस्मिक नहीं हो सकता। इसका कोई ठोस और सत्य कारण अवश्य होना ही चाहिए। समाजव्यवस्थाके लिए जड़वादको अनुपयोगिता :
जिस सहयोगात्मक समाजव्यवस्थाके लिए भौतिकवाद मनुष्यका संसार गर्भसे मरण तक ही मानना चाहता है, उस व्यवस्थाके लिए यह भौतिकवादी प्रणाली कोई प्राभाविक उपाय नहीं है। जब मनुष्य यह सोचता है कि मेरा अस्तित्व शरीरके साथ ही समाप्त होनेवाला है, तो वह भोगविलास आदिकी वृत्तिसे विरक्त होकर क्यों राष्ट्रनिर्माण और समाजवादी व्यवस्थाकी ओर झुकेगा ? चेतन आत्माओंके स्वतन्त्र अस्तित्व और व्यक्तित्व सवीकार कर लेनेपर उनमें प्रतिक्षण स्वाभाविक परिवर्तन योग्यता मान लेनेपर तो अनुकुल विकासका अनन्त क्षेत्र सामने उपस्थित हो जाता है, जिसमें मनुष्य अपने समग्र पुरुषार्थका, खुलकर उपयोग कर सकता है। यदि मनुष्योंको केवल भौतिक माना जाता है, तो भूत जन्य वर्ण और वंश आदिकी श्रेष्ठता और कनिष्ठताका प्रश्न सीधा सामने आता है। किन्तु इस भूतजन्य वंश, रंग आदिके स्थूल भेदोंकी ओर दृष्टि न कर जब समस्त मनुष्यआत्माओंका मूलतः समान अधिकार और स्वतन्त्र व्यक्तित्व माना जाता है, तो ही सहयोगमूलक समाज-व्यवस्थाके लिए उपयुक्त भूमिका प्रस्तुत होती है। समाजव्यवस्थाका आधार समता :
जैनदर्शनने प्रत्येक जड़-चेतन तत्त्वका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व माना है । मूलतः एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यपर कोई अधिकार नहीं है । सब अपने-अपने परिणामी
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