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जैनदर्शन
बदलता हुआ और परस्पर परिणमनोंको प्रभावित करता हुआ भी निश्चित कार्यकारणपरम्परासे आबद्ध है।
इस तरह 'भौतिकवाद'के वस्तुविवर्तनके सामान्य सिद्धान्त जैनदर्शनके अनन्त द्रव्यवाद और उत्पादादि त्रयात्मक सत्के मूल सिद्धान्तसे जरा भी भिन्न नहीं है । जिस तरह आजका विज्ञान अपनी प्रयोगशालामें भौतिकवादके इन सामान्य सिद्धान्तोंको कड़ी परीक्षा दे रहा है इसी तरह भगवान् महावीरने अपने अनुभवप्रसूत तत्त्वज्ञानके बलपर आजसे २५०० वर्ष पहले जो यह घोषणा की थी कि'प्रत्येक पदार्थ चाहे जड़ हो या चेतन, उ पाद व्यय और ध्रौव्यरूपसे परिणामी है । "उपपन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा” (स्थाना० स्था० १०) अर्थात् प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, और स्थिर रहता है ।' उनकी इस मातृकात्रिदीमें जिस त्रयात्मक परिणामवादका प्रतिपादन हुआ था, वही सिद्धान्त विज्ञानकी प्रयोगशालामें भी अपनी सत्यताको सिद्ध कर रहा है । चेतनसृष्टि : _ विचारणीय प्रश्न इतना रह जाता है कि भौतिकवादमें इन्हीं जड़ परमाणुओंसे ही जो जीवसृष्टि और चेतनसृष्टिका विकास गुणात्मक परिवर्तनके द्वारा माना है, वह कहाँ तक ठीक है ? अचेतनको चेतन बननेमें करोड़ों वर्ष लगे हैं। इस चेतन सृष्टिके होनेमें करोड़ों वर्ष या अरब वर्ष जो भी लगे हों उनका अनुमान तो आजका भौतिक विज्ञान कर लेता है; पर वह जिस तरह ऑक्सीजन और हाइड्रोजनको मिलाकर जल बना देता है और जलका विश्लेषण कर पुनः ऑक्सीजन और हाइड्रोजन रूपसे भिन्न-भिन्न कर देता है उस तरह असंख्य प्रयोग करनेके बाद भी न तो आज वह एक भी जीव तैयार कर सका है, और न स्वतःसिद्ध जीवका विश्लेषण कर उस अदृश्य शक्तिका साक्षात्कार ही करा सका है, जिसके कारण जीवित शरीरमें ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न आदि उत्पन्न होते हैं।
यह तो निश्चित है कि----भौतिकवादने जीवसृष्टिकी परम्परा करोड़ों वर्ष पूर्वसे स्वीकार की है और आज जो नया जीव विकसित होता है, वह किसी पुराने जीवित सेलको केन्द्र बनाकर ही । ऐसी दशामें यह अनुमान कि 'किसी समय जड़ पृथ्वी तरल रही होगी, फिर उसमें घनत्व आया और अमीवा आदि उत्पन्न हुए' केवल कल्पना ही मालूम होती है। जो हो, व्यवहारमें भौतिकवाद भी मनुष्य या प्राणिसृष्टिको प्रकृतिको सर्वोत्तम सृष्टि मानता है, और उनका पृथक्-पृथक् अस्तित्व भी स्वीकार करता है।
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