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लोकव्यवस्था
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हम इन निष्कर्षोंपर ठंडे दिल और दिमागसे विचार करें तो ज्ञात होगा कि भौतिकवादियोंकी यह वस्तुस्वरूपकी विवेचना वस्तुस्थितिके विरुद्ध नहीं है। जहाँ तक भूतोंके विशिष्ट रासायनिक मिश्रणसे जीवतत्त्वकी उत्पत्तिका प्रश्न है वहाँ तक उनका कहना एक हद तक विचारणीय है । पर सामान्यस्वरूपकी व्याख्या न केवल तर्कसिद्ध ही है किन्तु अनुभवगम्य भी है। इनका सबसे मौलिक सिद्धान्त यह है कि-प्रत्येक वस्तुमें स्वभावसे ही दो विरोधी शक्तियाँ मौजूद हैं, जिनके संघर्षसे उसे गति मिलती है, उसका परिवर्तन होता है और जगत्का समस्त कार्यकारणचक्र चलता है। मैं पहले लिख आया हूँ कि जैनदर्शनकी द्रव्यव्यवस्थाका मूल मंत्र उत्पादन-व्यय-ध्रौव्यरूप त्रिलक्षणता है। भौतिकवादियोंने जब वस्तुके कार्यकारणप्रवाहको अनादि और अनन्त स्वीकार किया है, और वे सत्का सर्वथा विनाश और असत्की उत्पत्ति जब नहीं मानते तो उन्होंने द्रव्यकी अविच्छिन्न धारा रूप ध्रौव्यत्वको स्पष्ट स्वीकार किया ही है। ध्रौव्यका अर्थ सर्वथा अपरिणामी नित्य और कूटस्थ नहीं हैं; किन्तु जो द्रव्य अनादि कालसे इस विश्वके रंगमंचपर परिवर्तन करता हुआ चला आ रहा है, उसकी परिवर्तन धाराका कभी समूलोच्छेद नहीं होना है। इसके कारण एक द्रव्य प्रतिक्षण अपनी पर्यायोंमें बदलता हुआ भी, कभी न तो समाप्त होता है और न द्रव्यान्तरमें विलीन ही होता है । इस द्रव्यान्तरअसंक्रान्तिका और द्रव्यकी किसी न किसी रूपमें स्थितिका नियामक ध्रौव्यांश है। जिससे भौतिकवादी भी इनकार नहीं कर सकते । विरोधी समागम अर्थात् उत्पाद और व्यय :
जिस विरोधी शक्तियोंके समागमकी चर्चा उन्होंने द्वन्द्ववाद (Diaiectism) के रूपमें की है वह प्रत्येक द्रव्यमें रहनेवाले उनके निजी स्वभाव उत्पाद और व्यय हैं। इन दो विरोधी शक्तियोंकी वजहसे प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। यानि पूर्वपर्यायका विनाश और उत्तरपर्यायका उत्पाद प्रतिक्षण वस्तुमें निरपवादरूपसे होता रहता है। पूर्व पर्यायका विनाश ही उत्तरका उत्पाद है। ये दोनों शक्तियाँ एक साथ वस्तुमें अपना काम करती हैं और ध्रौव्यशक्ति द्रव्यका मौलिकत्व सुरक्षित रखती है। इस तरह अनन्तकाल तक परिवर्तन करते रहने पर भी द्रव्य कभी निःशेष नहीं हो सकता। उसमें चाहे गुणात्मक परिवर्तन हों या परिमाणात्मक, किन्तु उसका अपना अस्तित्व किसी न किसी अवस्था में अवश्य ही रहेगा। इस तरह प्रतिक्षण त्रिलक्षण पदार्थ एक क्रमसे अपनी पर्यायोंमें
१. 'कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमात्"-आप्तमी० श्लोक० ५८ ॥
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