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________________ जैनदर्शन अपनी इष्ट अर्थक्रिया करके आकांक्षाओंको शान्त करते हैं और संतोषका अनुभव करते हैं, जबकि स्वप्नदृष्टि वा ऐन्द्रजालिक पदार्थोंसे न तो अर्थक्रिया ही होती है न तज्जन्य संतोषका अनुभव ही। उनकी काल्पनिकता तो प्रतिभासकालमें ही ज्ञात हो जाती है । धर्मग्रन्थ, पुस्तक, रद्दी आदि संज्ञाएँ मनुष्यकृत और काल्पनिक हो सकती हैं, पर जिस वजनवाले रूप-रस-गंध-स्पर्शवाले स्थूल ठोस पदार्थमें ये संज्ञाएँ की जाती हैं, वह तो काल्पनिक नहीं है । वह तो ठोस, वजनदार, सप्रतिघ और रूप-रसादि-गुणोंका आधार परमार्थसत् पदार्थ है। इस पदार्थको अपने-अपने संकेतके अनुसार चाहे कोई धर्मग्रन्थ कहे, कोई पुस्तक, कोई किताब, कोई बुक या अन्य कुछ कहे, ये संकेत व्यवहारके लिये अपनी परम्परा और वासनाओंके अनुसार होते हैं, उसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर उस ठोस पुद्गलसे इनकार नहीं किया जा सकता। दृष्टि-सृष्टिका भी अर्थ यही है कि सामने रखे हुए परमार्थसत् ठोस पदार्थमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार अनेक पुरुष अनेक प्रकारके व्यवहार करते हैं। उनकी व्यवहारसंज्ञायें भले ही प्रातिभासिक हों, पर वह पदार्थ, जिसमें ये संज्ञायें की जाती हैं, विज्ञानकी तरह ही परमार्थसत् है। ज्ञान पदार्थपर निर्भर हो सकता है, न कि पदार्थ ज्ञानपर । जगत्में अनन्त ऐसे पदार्थ भरे पड़े हैं, जिनका हमें ज्ञान नहीं होता । ज्ञानके पहले भी वे पदार्थ थे और ज्ञानके बाद भी रहेंगे। हमारा इन्द्रिय-ज्ञान तो पदार्थोकी उपस्थितिके बिना हो ही नहीं सकता । नीलाकार ज्ञानसे तो कपड़ा नहीं रंगा जा सकता। कपड़ा रंगनेके लिए ठोस जड नील चाहिए, जो ठोस और जड़ कपड़ेके प्रत्येक तन्तुको नीला बनाता है। यदि कोई परमार्थसत् नील अर्थ न हो, तो नीलाकार वासना कहाँसे उत्पन्न होगी ? वासना तो पूर्वानुभवकी उत्तर दशा है । यदि जगत्में नील अर्थ नहीं है तो ज्ञानमें नीलाकार कहाँसे आया ? वासना नीलाकार कैसे बन गई ? तात्पर्य यह कि व्यवहारके लिए की जानेवाली संज्ञाएँ, इष्ट-अनिष्ट और सुन्दर-असुन्दर आदि कल्पनाएँ भले ही विकल्पकल्पित हों, और दृष्टि-सृष्टिको सीमामें हों, पर जिस आधारपर ये कल्पनाएँ कल्पित होती हैं, वह आधार ठोस और सत्य है ।' विषके ज्ञानसे मरण नहीं होता। विषका ज्ञान जिस प्रकार परमार्थसत् है, उसी तरह विष पदार्थ, विषका खानेवाला और विषके संयोगसे होनेवाला शरीरगत रासायनिक परिणमन भी परमार्थसत् ही हैं । पर्वत, मकान, नदी आदि पदार्थ यदि ज्ञानात्मक ही हैं, तो उनमें मूर्तत्व, स्थूलत्व और तरलता आदि कैसे १. “न हि जातु विषशानं मरणं प्रति धावति ।" न्यायवि० १।६९ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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