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________________ लोकव्यवस्था अशाश्वत है। इसमें कार्योंकी उत्पत्ति में काल एक साधारण निमित्तकारण है, जो प्रत्येक परिणमनशील द्रव्यके परिणाममें निमित्त होता है, और स्वयं भी अन्य द्रव्योंकी तरह परिवर्तनशील है । द्रव्ययोग्यता और पर्याययोग्यता : जगत्का प्रत्येक कार्य अपने सम्भाव्य स्वभावोंके अनुसार ही होता है, यह सर्वमत साधारण सिद्धान्त है । यद्यपि प्रत्येक पुद्गलपरमाणुमें घट, पट आदि सभी कुछ बननेकी द्रव्ययोग्यता है किन्तु यदि वह परमाणु मिट्टी के पिण्डमें शामिल है तो वह साक्षात् घट ही बन सकता है, पट नहीं । सामान्य स्वभाव होनेपर भी उन द्रव्योंकी स्थूल पर्यायोंमें साक्षात् विकसनेयोग्य कुछ नियत योग्यताएँ होती हैं । यह नियतिपन समय और परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है । यद्यपि यह पुरानी कहावत प्रसिद्ध है कि 'घड़ा मिट्टीसे बनता है बालूसे नहीं । किन्तु आजके वैज्ञानिक बाको काँची भट्टी में पकाकर उससे अधिक सुन्दर और पारदर्शी घड़ा बनने लगा है । 3 अतः द्रव्ययोग्यताएँ सर्वथा नियत होने पर भी, पर्याययोग्यताओंकी नियत ता परिस्थितिके ऊपर निर्भर करती है । जगत् में समस्त कार्योंके परिस्थितिभेदसे अनन्त कार्यकारणभाव हैं और उन कार्यकारणपरम्पराओंके अनुसार ही प्रत्येक कार्य उत्पन्न होता है । अतः अपने अज्ञान के कारण किसी भी कार्यको यदृच्छा -- अटकल पच्चू कहना अतिसाहस है । पुरुष उपादान होकर केवल अपने ही गुण और अपनी ही पर्यायोंका कारण बन सकता है, उन ही रूपसे परिणमन कर सकता है, अन्य रूपसे कदापि नहीं । एक द्रव्य दूसरे किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यमें केवल निमित्त ही बन सकता है, उपादान कदापि नहीं, यह एक सुनिश्चित मौलिक द्रव्यसिद्धान्त है । संसारके अनन्त कार्योंका बहुभाग अपने परिणमनमें किसी चेतन प्रयत्नकी आवश्यकता नहीं रखता । जब सूर्य निकलता है तो उसके संपर्कसे असंख्य जलकण भाप बनते हैं, और क्रमशः मेघोंकी सृष्टि होती है । फिर सर्दी-गर्मीका निमित्त पाकर जल बरसता है । इस तरह प्रकृतिनटीके रंगमंचपर अनन्त कार्य प्रतिसमय अपने स्वाभाविक परिणामी स्वभावके अनुसार उत्पन्न होते और नष्ट होते रहते हैं । उनका अपना द्रव्यगत धौव्य ही उन्हें क्रमभंग करनेसे रोकता है अर्थात् वे अपने द्रव्यगत स्वभाव के कारण अपनी ही धारामें स्वयं नियन्त्रित हैं— उन्हें किसी दूसरे द्रव्यके • नियन्त्रणकी न कोई अपेक्षा है और न आवश्यकता ही । यदि कोई चेतनद्रव्य भी fair द्रव्यकी कारणसामग्री में सम्मिलित हो जाता है तो ठीक है, वह भी उसके परिणमनमें निमित्त हो जायगा । यहाँ तो परस्पर सहकारिताकी खुली स्थिति है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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