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________________ ८४ जैनदर्शन बताया। जैसा कि इस प्रकरणके शुरूमें लिख चुका हूं। प्रत्येक वर्तमान पर्याय अपने समस्त अतीत संस्कारोंका परिवर्तित पुञ्ज है और है अपनी समस्त भविष्यत् योग्यताओंका भंडार । उस प्रवहमान पर्यायपरम्परामें जिस समय जैसी कारणसामग्री मिल जाती है, उस समय उसका वैसा परिणमन उपादान और निमित्तके बलाबलके अनुसार होता जाता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यके इस सार्वद्रव्यिक और सार्वकालिक नियमका इस विश्वमें कोई भी अपवाद नहीं है। प्रत्येक सत्को प्रत्येक समय अपनी पर्याय बदलनी ही होगी, चाहे आगे आनेवाली पर्याय सदृश, असदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश या विसदृश ही क्यों न हो। इस तरह अपने परिणामी स्वभावके कारण प्रत्येक द्रव्य अपनी उपादानयोग्यता और सन्निहित निमित्तसामग्रीके अनुसार पिपीलकाक्रम या मेंढककुदानके रूपमें परिवर्तित हो ही रहा है । दो विरुद्ध शक्तियाँ: द्रव्यमें उत्पादशक्ति यदि पहले क्षणमें पर्यायको उत्पन्न करती है तो विनाशशक्ति उस पर्यायका दूसरे क्षणमें नाश कर देती है। यानी प्रतिसमय यदि उत्पादशक्ति किसी नूतन पर्यायको लाती है तो विनाशशक्ति उसी समय पूर्व पर्यायको नाश करके इसके लिए स्थान खाली कर देती है। इस तरह इस विरोधी-समागमके द्वारा द्रव्य प्रतिक्षण उत्पाद, विनाश और इसकी कभी विच्छिन्न न होनेवाली ध्रौव्य-परम्पराके कारण विलक्षण है। इस तरह प्रत्येक द्रव्यके इस स्वाभाविक परिणमन-चक्रमें जब जैसी कारणसामग्री जुट जाती है उसके अनुसार वह परिणमन स्वयं प्रभावित होता है और कारणसामग्री के घटक द्रव्योंको प्रभावित भी करता है। यानी यदि एक पर्याय किसी परिस्थितिसे उत्पन्न हुई है तो वह परिस्थितिको बनाती भी है। द्रव्यमें अपने संभाव्य परिणमनोंकी असंख्य योग्यताएँ प्रतिसमय मौजूद हैं । पर विकसित वही योग्यता होती है जिसकी सामग्री परिपूर्ण हो जाती है। जो इस प्रवहमान चक्रमें अपना प्रभाव छोड़नेका बुद्धिपूर्वक यत्न करते हैं वे स्वयं परिस्थितिके निर्माता बनते हैं और जो प्रवाहपतित हैं वे परिवर्तनके थपेड़ोंमें इतस्ततः अस्थिर रहते हैं। लोक शाश्वत भी है : यदि लोकको समग्र भावसे संततिकी दृष्टिसे देखें तो लोक अनादि और अनन्त है । कोई भी द्रव्य इसके रंगमंचसे सर्वथा नष्ट नहीं हो सकता और न कोई असत्से सत् बनकर इसकी नियत द्रव्यसंख्यामें एककी भी वृद्धि ही कर सकता है। यदि प्रतिसमयभावी, प्रतिद्रव्यगत पर्यायोंकी दृष्टिसे देखें तो लोक 'सान्त' भी है। उस द्रव्यदृष्टि से देखनेपर लोक शाश्वत है। और इस पर्याय दृष्टिसे देखनेपर लोक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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