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लोकव्यवस्था
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होकर विचारते हैं कि सृष्टिके पहले यहाँ कोई सत् पदार्थ नहीं था और असत्से ही सत्की उत्पत्ति हुई है । तो दूसरे ऋषि सोचते हैं कि असत्से सत् कैसे हो सकता है ? अतः पहले भी सत् ही था और सत्से ही सत् हुआ है । तो तीसरे ऋषिका चिंतन सत् और असत् उभयकी ओर जाता है । चौथा ऋषि उस तत्त्वको जिससे इस जगत्का विकास हुआ है, वचनोंके अगोचर कहता है । तात्पर्य यह है कि सृष्टिकी व्यवस्था सम्बन्धमें आज तक सहस्रों चिन्तकोंने अनेक प्रकारके विचार प्रस्तुत किये हैं ।
अव्याकृतवाद :
भ० बुद्ध से 'लोक सान्त है या अनन्त, शाश्वत है या अशाश्वत, जीव और शरीर भिन्न हैं या अभिन्न, मरनेके बाद तथागत होते हैं या नहीं ?' इस प्रकारके प्रश्न जब मोलुक्यपुत्रने पूँछे तो उन्होंने इनको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया और कहा कि मैंने इन्हें अव्याकृत इसलिए कहा है कि 'उनके बारेमें कहना सार्थक नहीं है, न भिक्षु के लिए और न ब्रह्मचर्यके लिए ही उपयोगी है, न यह निर्वेद, शान्ति, परमज्ञान और निर्वाण के लिए आवश्यक ही है।' आत्मा आदिके सम्बन्धमें बुद्धकी यह अव्याकृतता हमें सन्देहमें डाल देती है । जब उस समयके वाता - वरणमें इन दार्शनिक प्रश्नोंकी जिज्ञासा सामान्यसाधकके मनमें उत्पन्न होती थी और इसके लिये वाद तक रोपे जाते थे, तब बुद्ध जैसे व्यवहारी चिन्तकका इन प्रश्नोंके सम्बन्ध में मौन रहना रहस्यसे खाली नहीं है । यही कारण है कि आज बौद्ध तत्त्वज्ञानके सम्बन्ध में अनेक विवाद उत्पन्न हो गए हैं । कोई बौद्ध के निर्वाणको शून्यरूप या अभावात्मक मानता है, तो कोई उसे सद्भावात्मक । आत्माके सम्बन्ध में बुद्धका यह मत तो स्पष्ट था कि वह न तो उपनिषद्वादियोंकी तरह शाश्वत ही है और न भूतवादियोंकी तरह सर्वथा उच्छिन्न होनेवाली ही है । अर्थात् उन्होंने आत्माको न शाश्वत माना और न उच्छिन्न । इस अशाश्वतानुच्छेदरूपी उभयप्रतिषेधके होनेपर भी बुद्धका आत्मा किस रूप था, यह स्पष्ट नहीं हो पाता । इसीलिए आज बुद्धके दर्शनको अशाश्वतानुच्छेदवाद कहा जाता है । पाली साहित्यमें हम जहाँ बुद्धके आर्यसत्योंका सांगोपांग विधिवत् निरूपण देखते हैं, वहाँ दर्शनका स्पष्ट वर्णन नहीं पाते ।
उत्पादादित्रयात्मकवाद :
निग्गंथ नाथपुत्त वर्धमान महावीरने लोकव्यवस्था और द्रव्योंके स्वरूपके सम्बन्धमें अपने सुनिश्चित विचार प्रकट किये हैं । उन्होंने षट्द्रव्यमय लोक तथा द्रव्योंके उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक स्वरूपको बहुत स्पष्ट और सुनिश्चित पद्धतिसे
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