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________________ ८२ जैनदर्शन जरूरत है और न नियंत्रण करनेकी । नित्य, एक और समर्थ ईश्वरसे समस्त क्रमभावी कार्य युगपत् उत्पन्न हो जाने चाहिये। सहकारी कारण भी तो ईश्वरको ही उत्पन्न करना है। सर्वव्यापक ईश्वरमें क्रिया भी नहीं हो सकती। उसकी इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति भी नित्य हैं, अतः क्रमसे कार्य होना कथमपि सम्भव नहीं है। ___ जगत्के उद्धारके लिए किसी ईश्वरकी कल्पना करना तो द्रव्योंके निज स्वरूप को ही परतन्त्र बना देना है। हर आत्मा अपने विवेक और सदाचरणसे अपनी उन्नतिके लिए स्वयं जवाबदार है। उसे किसी विधाताके सामने उत्तरदायी नहीं होना है । अतः जगत्के सम्बन्धमें पुरुषवाद भी अन्य वादोंकी तरह निःसार है । भूतवाद : भूतवादी पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इस भूतचतुष्टयसे ही चेतन-अचेतन और मर्त-अमर्त सभी पदार्थोंकी उत्पत्ति मानते हैं। चेतना भी इनके मतसे पृथिव्यादि भूतोंकी ही एक विशेष परिणति है, जो विशेष प्रकारकी परिस्थितिमें उत्पन्न होती है और उस परिस्थितिके बिखर जानेपर वह वहीं समाप्त हो जाती है। जैसे कि अनेक प्रकारके छोटे-बड़े पुर्जोसे एक मशीन तैयार होती है और उन्हींके परस्पर संयोगसे उसमें गति भी आ जाती है और कुछ समयके बाद पुोंके घिस जानेपर वह टूटकर बिखर जाती है, उसी तरहका यह जीवनयंत्र है । यह भूतात्मवाद उपनिषद् कालसे ही यहाँ प्रचलित है । इसमें विचारणीय बात यही है कि इस भौतिक पुतलेमें, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, ज्ञान, जिजीविषा और विविध कलाओंके प्रति जो नैसर्गिक झुकाव देखा जाता है, वह अनायास कैसे आ गया ? स्मरण ही एक ऐसी वृत्ति है, जो अनुभव करनेवालेके चिरकालस्थायी संस्कारकी अपेक्षा रखती है। विकासवादके सिद्धान्तके अनुसार जीवजातिका विकास मानना भी भौतिकवादका एक परिष्कृत रूप है। इसमें क्रमशः अमीवा, घोंघा आदि बिना रीढ़के प्राणियोंसे, रीढ़दार पशु और मनुष्योंकी सृष्टि हुई। जहाँ तक इनके शरीरके आनुवंशिक विकासका सम्बन्ध है वहाँ तक इस सिद्धान्तकी संगति किसी तरह खींचतान करके बैठाई भी जा सकती है, पर चेतन और अमूर्तिक आत्माकी उत्पत्ति, जड़ और मूर्तिक भूतोंसे कैसे सम्भव हो सकती है ? । ___ इस तरह जगत्की उत्पत्ति आदिके सम्बन्धमें काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, कर्म, पुरुष और भूत इत्यादिको कारण माननेकी विचार-धाराएं जबसे इस मानवके जिज्ञासा-नेत्र खुले, तबसे बराबर चली आती है । ऋग्वेदके एक ऋषि तो चकित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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