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लोकव्यवस्था
व्यक्तित्व अपने-अपने हैं । एक भोजन करता है तो तृप्ति दूसरेको नहीं होती। इसी तरह जड़ पदार्थोके परमाणु अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं । अनन्त प्रयत्न करनेपर भी दो परसाणुओंकी स्वतंत्र सत्ता मिटाके उनमें एकत्व नहीं लाया जा सकता । अतः जगत्में प्रत्यक्षसिद्ध अनन्त सत्व्यक्तियोंका अपलाप करके केवल एक पुरुषको अनन्त कार्योंके प्रति उपादान मानना कोरी कल्पना ही है । ___ इस अद्वैतैकान्तमें कारण और कार्यका, कारक और क्रियाओंका, पुण्य और पाप कर्मका, सुख-दुःख फलका, इहलोक और परलोकका, विद्या और अविद्याका तथा बन्ध और मोक्ष आदिका वास्तविक भेद ही नहीं रह सकता। अतः प्रतीतिसिद्ध जगत्व्यवस्थाके लिए ब्रह्मवाद कथमपि उचित सिद्ध नहीं होता। सकल जगत्में 'सत्' 'सत्' का अन्वय देखकर एक 'सत्' तत्त्वकी कल्पना करना और उसे ही वास्तविक मानना प्रतीतिविरुद्ध है। जैसे विद्यार्थीमण्डलमें 'मण्डल' अपनेआपमें कोई चीज नहीं है, किन्तु स्वतंत्र सत्तावाले अनेक विद्यार्थियोंको सामूहिक रूपसे व्यवहार करनेके लिये एक 'मण्डल' की कल्पना कर ली जाती है, इसमें तत्तत् विद्यार्थी तो परमार्थसत् है, एक मण्डल नहीं; उसी तरह अनेक सद्व्यक्तियोंमें कल्पित एक सत्त्व व्यवहारसत्य ही हो सकता है परमार्थसत्य नहीं। ईश्वरवाद :
ईश्वरवादमें ईश्वरको जन्यमात्रके प्रति निमित्त माना जाता है। उसकी इच्छाके बिना जगत्का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। विचारणीय बात यह है कि जब संसारमें अनन्त जड़ और चेतन पदार्थ, अनादिकालसे स्वतन्त्र सिद्ध हैं, ईश्वरने भी असत्से किसी एक भी सत्को उत्पन्न नहीं किया, वे सब परस्पर सहकारी होकर प्राप्त सामग्रीके अनुसार अपना परिणमन करते रहते हैं तब एक सर्वाधिष्ठाता ईश्वर माननेको आवश्यकता ही क्या रह जाती है ? यदि ईश्वर कारुणिक है; तो उसने जगत्में दुःख और दुःखी प्राणियोंकी सृष्टि ही क्यों की ? अदृष्टका नाम लेना तो केवल बहाना है; क्योंकि अदृष्ट भी तो ईश्वरसे ही उत्पन्न होता है । सृष्टि के पहले तो अनुकम्पाके योग्य प्राणी ही नहीं थे, फिर उसने किस पर अनुकम्पा की ? इस तरह जैसे-जैसे हम इस सार्वनियन्तवादपर विचार करते हैं, वैसे-वैसे इसकी निःसारता सिद्ध होती जाती है ।
अनादिकालसे जड़ और चेतन पदार्थ अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप स्वभावके कारण परस्पर-सापेक्ष भी होकर तथा क्वचित सथूल बाह्य सामग्रीसे निरपेक्ष भी रहकर स्वयं परिणमन करते जाते हैं। इसके लिए न किसीको चिंता करनेकी १. देखो-आप्तमीमांसा २।१-६ ।
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