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________________ ८० जैनदर्शन होनेको प्रतिसमय तैयार बैठी हैं, उनमेंसे उपयुक्त योग्यताका उपयुक्त समयमें विकास करा लेना, यही नियतिके बीच पुरुषार्थका कार्य है। इस पुरुषार्थसे कर्म भी एक हद तक नियन्त्रित होते हैं । यदृच्छावाद: यदृच्छावादका अर्थ है-अटकलपच्चू । मनुष्य जिस कार्यकारण-परम्पराका सामान्य ज्ञान भी नहीं कर पाता है उसके सम्बन्धमें वह यदृच्छाका सहारा लेता है। वस्तुतः यदृच्छावाद उस नियति और ईश्वरवादके विरुद्ध एक प्रतिशब्द है, जिनने जगत्को नियन्त्रित करनेका रूपक बाँधा था। यदि यदृच्छाका अर्थ यह है कि प्रत्येक कार्य अपनी कारणसामग्रीसे होता है और सामग्रीको कोई बन्धन नहीं कि वह किस समय, किसे, कहाँ, कैसे रूपमें मिलेगी, तो यह एक प्रकारसे वैज्ञानिक कार्यकारणभावका ही समर्थन है । पर यदृच्छाके भीतर वैज्ञानिकता और कार्यकारण भाव दोनोंकी ही उपेक्षाका भाव है। पुरुषवाद: 'पुरुष ही इस जगत्का कर्ता, हर्ता और विधाता है' यह मत सामान्यतः पुरुषवाद कहलाता है। प्रलय कालमें भी उस पुरुषकी ज्ञानादि शक्तियाँ अलुस रहती हैं।' जैसे कि मकड़ी जालेके लिए और चन्द्रकान्तमणि जलके लिए, तथा वटवृक्ष प्ररोह-जटाओंके लिए कारण होता है उसी तरह पुरुष समस्त जगत्के प्राणियोंकी सृष्टि, स्थिति और प्रलयमें निमित्त होता है। पुरुषवादमें दो मत सामान्यतः प्रचलित हैं । एक तो है ब्रह्मवाद, जिसमें ब्रह्म ही जगत्के चेतन-अचेतन, मूर्त और अमूर्त सभी पदार्थोंका उपादान कारण होता है। दूसरा है ईश्वरवाद, जिसमें वह स्वयंसिद्ध जड़ और चेतन द्रव्योंके परस्पर संयोजनमें निमित्त होता है। ब्रह्मवादमें एक ही तत्त्व कैसे विभिन्न पदार्थोंके परिणमनमें उपादान बन सकता है ? यह प्रश्न विचारणीय है। आजके विज्ञानने अनन्त एटमकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करके उनके परस्पर संयोग और विभागसे इस विचित्र सृष्टिकी उत्पत्ति मानी है। यह युक्तिसिद्ध भी है और अनुभवगम्य भी। केवक माया कह देने मात्रसे अनन्त जड़ पदार्थ, तथा अनन्त चेतन-आत्माओंका पारस्परिक यथार्थ भेद-व्यक्तित्व, नष्ट नहीं किया जा सकता। जगत्में अनन्त आत्माएँ अपने-अपने संस्कार और वासनाओं के अनुसार विभिन्न पर्यायोंको धारण करती है। उनके .१ "ऊर्णनाम इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् । प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ॥" -उपनिषत्, उद्धृत प्रमेयक० पृ० ६५ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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