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________________ लोकव्यवस्था ७९ पड़ा हुआ असाताके उदयमें दुःख भोग रहा है और एक दरी किसी कारखानेमें बन रही है जो २० वर्ष बाद उसके उपयोगमें आयगी और साता उत्पन्न करेगी तो आज उस दरीमें उस नरकस्थित प्राणीके अदृष्टको कारण मानने में बड़ी विसंगति उत्पन्न होती है। अतः समस्त जगत्के पदार्थ अपने-अपने साक्षात् उपादान और निमित्तोंसे उत्पन्न होते हैं और यथासम्भव सामग्रीके अन्तर्गत होकर प्राणियोंके सुख और दुःखमें तत्काल निमित्तता पाते रहते हैं। उनकी उत्पत्तिमें किसी-नकिसीके अदृष्टको जोड़नेकी न तो आवश्यकता ही है और न उपयोगिता ही और न कार्यकारणव्यवस्थाका बल ही उसे प्राप्त है। कर्मोंका फल देना, फलकालकी सामग्रीके ऊपर निर्भर करता है। जैसे एक व्यक्तिके असाताका उदय आता है, पर वह किसी साधुके सत्संगमें बैठा हुआ तटस्थभावसे जगत्के स्वरूपको समझकर स्वात्मानंदमें मग्न हो रहा है । उस समय आनेवाली असाताका उदय उस व्यक्तिको विचलित नहीं कर सकता, किन्तु वह बाह्य असाताकी सामग्री न होनेसे बिना फल दिये ही झड़ जायगा। कर्म अर्थात् पुराने संस्कार । वे संस्कार अबुद्ध व्यक्तिके ऊपर ही अपना कुत्सित प्रभाव डाल सकते हैं, ज्ञानीके ऊपर नहीं । यह तो बलाबलका प्रश्न है । यदि आत्मा वर्तमानमें जाग्रत है तो पुराने संस्कारोंपर विजय पा सकता है और यदि जाग्रत नहीं है तो वे कुसंस्कार ही फूलते-फलते जाँयगें। आत्मा जबसे चाहे तबसे नया कदम उठा सकता है और उसी समयसे नवनिर्माणकी धारा प्रारम्भ कर सकता है। इसमें न किसी ईश्वरकी प्रेरणाकी आवश्यकता है और न "कर्मगति टाली नाहिं टलै"के अटल नियमकी अनिवार्यता ही है। जगत्का अणु-परमाणु ही नहीं किन्तु चेतन-आत्माएँ भी प्रतिक्षण अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभावके कारण अविराम गतिसे पूर्वपर्यायको छोड़ उत्तर पर्यायको धारण करती जा रही हैं । जिस क्षण जैसी बाह्य और आभ्यन्तर सामग्री जुटती जाती है उसीके अनुसार उस क्षणका परिणमन होता जाता है। हमें जो स्थूल परिणमन दिखाई देता है वह प्रतिक्षणभावी असंख्य सूक्ष्म परिणमनोंका जोड़ और औसत है। इसीमें पुराने संस्कारोंकी कारणसामग्रोके अनुसार सुगति या दुर्गति होती जाती है। इसी कारण सामग्रीके जोड़-तोड़ और तरतमतापर ही परिणमनका प्रकार निश्चित होता है। वस्तुके कभी सदृश, कभी विसदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश और असदृश आदि विविध प्रकारके परिणमन हमारी दृष्टिसे बराबर गुजरते हैं । यह निश्चित है कि कोई भी कार्य अपने कार्यकारणभावको उल्लंघन करके उत्पन्न नहीं हो सकता। द्रव्यमें सैकड़ों ही योग्यताएँ विकसित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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