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कर्मको कारणता :
जीवों के प्रतिक्षण जो संस्कार संचित होते हैं वे ही परिपाककालमें कर्म कहलाते हैं । इन कर्मोंकी कोई स्वतन्त्र कारणता नहीं है । उन जीवोंके परिणमनमें तथा उन जीवोंसे सम्बद्ध पुद्गलोंके परिणमनमें वे संस्कार उसी तरह कारण होते हैं जिस तरह एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें । अर्थात् अपने भावोंकी उत्पत्ति में वे उपादान होते हैं और पुद्गलद्रव्य या जीवान्तरके परिणमनमें निमित्त । समग्र लोककी व्यवस्था या परिवर्तनमें कोई कर्म नामका एक तत्त्व • महाकारण बनकर बैठा हो, यह स्थिति नहीं है ।
जैनदर्शन
इस तरह काल, आत्मा, स्वभाव, नियति यदृच्छा और भूतादि अपनी-अपनी मर्यादामें सामग्री के घटक होकर प्रतिक्षण परिवर्तमान इस जगत् के द्रव्यके परिणमनमें यथासंभव निमित्त और उपादान होते रहते हैं। किसी एक कारणका सर्वाधिपत्य जगत्के अनन्त द्रव्योंपर नहीं हैं । आधिपत्य यदि हो सकता है तो प्रत्येक द्रव्यका केवल अपनी ही गुण और पर्यायोंपर हो सकता है ।
जड़वाद और परिणामवाद :
वर्तमान जड़वादियोंने विश्वके स्वरूपको समझाते समय इन चार सिद्धान्तोंका निर्णय किया है ।
( १ ) ज्ञाता और ज्ञेय अथवा समस्त सद्वस्तु नित्य परिवर्तनशील है । वस्तुओंका स्थान बदलता रहता है । उनके घटक बदलते रहते हैं और उनके गुण-धर्म बदलते रहते हैं परन्तु परिवर्तनका अखण्ड प्रवाह चालू है ।
( २ ) दूसरा सिद्धान्त यह है कि सवस्तुका सम्पूर्ण विनाश नहीं होता। और सम्पूर्ण अभावमेंसे सद् वस्तु उत्पन्न नहीं होती । यह क्रम नित्य निर्बाध रूपसे चलता रहता है । प्रत्येक सत् वस्तु किसी-न-किसी अन्य सद् वस्तुमेंसे ही निर्मित होती हैं, सवस्तुसे ही बनी होती है, और किसी सद्वस्तुके आँखसे ओझल हो जानेपर दूसरी सद्वस्तुका निर्माण होता है ? जिस एक वस्तुमेंसे दूसरी वस्तु उत्पन्न होती है उसे द्रव्य कहते हैं । जिससे वस्तुएँ बनती हैं और जिसके गुण-धर्म होते हैं वह द्रव्य है । और गुणोंका समुच्चय जगत् है । यह जगत् कार्य-कारणोकी सतत परम्परा है । प्रत्येक वस्तु या घटना अपनेसे पूर्ववर्ती वस्तु या घटनाका कार्य होती है, तथा आगेकी घटनाओंका कारण । प्रत्येक घटना कार्य-कारणभाव की अनादि एवं अनन्त मालाका एक मनका है । कार्यकारणभाव के विशिष्ट नियमसे प्रत्येक घटना एक-दूसरेके साथ बँधी रहती है ।
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