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जैनदर्शन
स्थिति अर्धभौतिक जैसी हो रही है । उसका ज्ञानविकास, क्रोधादिविकार, इच्छा और संकल्प आदि सभी, बहुत कुछ शरीर, मस्तिष्क और हृदयकी गतिपर निर्भर करते हैं। मस्तिष्ककी एक कील ढीली हुई कि सारी स्मरण-शक्ति समाप्त हो जाती है और मनुष्य पागल और बेभान हो जाता है। शरीरके प्रकृतिस्थ रहनेसे ही आत्माके गुणोंका विकास और उनका अपनी उपयुक्त अवस्थामें संचालित रहना बनता है। बिना इन्द्रिय आदि उपकरणोंके आत्माकी ज्ञानशक्ति प्रकट ही नहीं हो पाती। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, विचार, कला, सौन्दर्याभिव्यक्ति और संगीत आदि सम्बन्धी प्रतिभाओंका विकास भीतरी और बाहरी दोनों उपकरणोंकी अपेक्षा रखता है।
आत्माके साथ अनादिकालसे कर्मपुद्गल ( कार्मण शरीर ) का सम्बन्ध है, जिसके कारण वह अपने पूर्ण चैतन्यरूपमें प्रकाशमान नहीं हो पाता। यह शंका स्वाभाविक है कि 'क्यों चेतनके साथ अचेतनका संपर्क हआ ? दो विरोधी द्रव्योंका सम्बन्ध हुआ ही क्यों ? हो भी गया हो तो एक द्रव्य दूसरे विजातीय द्रव्यपर . प्रभाव क्यों डालता है ?' इसका उत्तर इस छोर से नहीं दिया जा सकता, किन्तु दूसरे छोरसे दिया जा सकता है-आत्मा अपने पुरुषार्थ और साधनाओंसे क्रमशः वासनाओं और वासनासे उद्बोधक कर्मपुद्गलोंसे मुक्ति पा जाता है और एक बार शुद्ध ( मुक्त ) होनेके बाद उसे पुनः कर्मबन्धन नहीं होता, अतः हम समझते हैं कि दोनों पृथक् द्रव्य हैं। एक बार इस कार्मणशरीरसे संयुक्त आत्माका चक्र चला तो फिर कार्यकारणव्यवस्था जमती जाती है। आत्मा एक संकोच-विकासशीलसिकुड़ने और फैलनेवाला द्रव्य है जो अपने संस्कारोंके परिपाकानुसार छोटे-बड़े स्थूल शरीरके आकार हो जाता है। देहात्मवाद ( जड़वाद) की बजाय देहप्रमाण आत्मा माननेसे सब समस्याएं हल हो जाती हैं ।
१. 'नवनीत' जनवरी ५३ के अंकमें 'साइंसवीकली' से एक 'टुथड्रग' का वर्णन दिया है। जिसका इंजेक्शन देनेसे मनुष्य साधारणतया सत्य बात बता देता है। 'नवनीत' नवम्बर ५२ में बताया है कि 'सोडियम पेटोथल' का इंजेक्शन देने पर भयंकर अपराधी अपना अपराध स्वीकार कर लेता है। इन इंजेक्शनोंके प्रभावसे मनुष्यकी उन ग्रन्थियोंपर विशेष प्रभाव पड़ता है जिनके कारण उसकी झूठ बोलनेको प्रवृत्ति होती है।
अगस्त ५२ के 'नवनीत' में साइन्स डाइजेस्टके एक लेखका उद्धरण है, जिसमें 'क्रोमोसोम' में तबदीली कर देनेसे १२ पौंड वजनका खरगोश उत्पन्न किया गया है। हृदय और आँखें बदलनेके भी प्रयोग विज्ञानने कर दिखाये हैं।
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