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________________ लोकव्यवस्था आत्मा देहप्रमाण भी अपने कर्मसंस्कारके कारण ही होता है। कर्मसंस्कार छूट जानेके बाद उसके प्रसारका कोई कारण नहीं रह जाता; अतः वह अपने अन्तिम शरीरके आकार बना रहता है, न सिकुड़ता है और न फैलता है। ऐसे संकोचविकासशील शरीरप्रमाण रहनेवाले, अनादि कार्मण शरीरसे संयुक्त, अर्धभौतिक आत्माकी प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक विचार और वचनव्यवहार अपना एक संस्कार तो आत्मा और उसके अनादिसाथी कार्मण शरीरपर डालते हैं। संस्कार तो आत्मापर पड़ता है, पर उस संस्कारका प्रतिनिधि द्रव्य उस कार्मणशरीरसे बँध जाता है जिसके परिपाकानुसार आत्मामें वही भाव और विचार जाग्रत होते हैं और उसीका असर बाह्य सामग्रीपर भी पड़ता है, जो हित और अहितमें साधक बन जाती है। जैसे कोई छात्र किसी दूसरे छात्रकी पुस्तक चुराता है या उसकी लालटेन इस अभिप्रायसे नष्ट करता है कि 'वह पढ़ने न पावे' तो वह इस ज्ञानविरोधक क्रिया तथा विचारसे अपनी आत्मामें एक प्रकारका विशिष्ट कुसंस्कार डालता है। उसी समय इस संस्कारका मूर्तरूप पुद्गलद्रव्य आत्माके चिरसंगी कार्मणशरीरसे बँध जाता है। जब उस संस्कारका परिपाक होता है तो उस बँधे हुए कर्मद्रव्यके उदयसे आत्मा स्वयं उस हीन और अज्ञान अवस्थामें पहुँच जाता है जिससे उसका झुकाव ज्ञानविकासकी ओर नहीं हो पाता। वह लाख प्रयत्न करे, पर अपने उस कुसंस्कारके फलस्वरूप ज्ञानसे वंचित हो ही जाता है। यही कहलाता है 'जैसी करनी तैसी भरनी ।' वे विचार और क्रिया न केवल आत्मापर ही असर डालते हैं किन्तु आसपासके वातावरणपर भी अपना तीव्र, मन्द और मध्यम असर छोड़ते हैं। शरीर, मस्तिष्क और हृदयपर तो उसका असर निराला ही होता है। इस तरह प्रतिक्षणवर्ती विचार और क्रियाएँ यद्यपि पूर्वबद्ध कर्मके परिपाकसे उत्पन्न हुई हैं पर उनके उत्पन्न होते ही जो आत्माकी नयी आसक्ति, अनासक्ति, राग, द्वेष और तृष्णा आदि रूप परिणति होती है ठीक उसीके अनुसार नये-नये संस्कार और उसके प्रतिनिधि पुद्गल सम्बन्धित होते जाते हैं और पुराने झड़ते जाते हैं। इस तरह यह कर्मबन्धनका सिलसिला तब तक बराबर चालू रहता है जब तक आत्मा सभी पुरानी वासनाओंसे शून्य होकर पूर्ण वीतराग या सिद्ध नहीं हो जाता। कर्मविपाक: विचारणीय बात यह है कि कर्मपुद्गलोंका विपाक कैसे होता हैं ? क्या कर्मपुद्गल स्वयमेव किसी सामग्रीको जुटा लेते हैं और अपने आप फल दे देते हैं या इसमें कुछ पुरुषार्थ की भी अपेक्षा है ? अपने विचार, वचनव्यवहार और क्रियाएँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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