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लोकव्यवस्था
में लायगा, न तो युक्तिसिद्ध ही है और न अनुभवगम्य ही। फिर जगत्में प्रतिक्षण अनन्त ही कार्य ऐसे उत्पन्न और नष्ट हो रहे हैं, जो किसीके उपयोगमें नहीं आते। पर भौतिक सामग्रीके आधारसे वे बराबर परस्पर परिणत होते जाते हैं।
कार्यमात्रके प्रति अदृष्टको कारण माननेके पीछे यह ईश्वरवाद छिपा हुआ है कि जगत्के प्रत्येक अणु-परमाणुकी क्रिया ईश्वरकी प्रेरणासे होती है, बिना उसकी इच्छाके पत्ता भी नहीं हिलता । और संसारकी विषमता और निर्दयतापूर्ण परिस्थितियोंके समाधानके लिए प्राणियोंके अदृष्टकी आड़ लेना, जब आवश्यक हो गया तब ‘अर्थात्' ही अदृष्टको जन्यमात्रकी कारणकोटिमें स्थान मिल गया; क्योंकि कोई भी कार्य किसी-न-किसीके साक्षात् या परम्परासे उपयोगमें आता ही है और विषमता और निर्दयतापूर्ण स्थितिका घटक होता ही है। जगतमें परमाणुओंके परस्पर संयोग-विभागसे बड़े-बड़े पहाड़, नदी, नाले, जंगल और विभिन्न प्राकृतिक दृश्य बने हैं। उनमें भी अदृष्टको और उसके अधिष्ठाता किसी चेतनको कारण मानना वस्तुतः अदृष्टकल्पना ही है । ‘दृष्टकारणवैफल्ये अदृष्टपरिकल्पनोपपत्तेः-जब दृष्टकारणको संगति न बैठे तो अदृष्ट हेतुकी कल्पना की जाती है', यह दर्शनशास्त्रका न्याय है। दो मनुष्य समान परिस्थितियोंमें उद्यम और यत्न करते हैं पर एककी कार्यकी सिद्धि देखी जाती है और दूसरेको सिद्धि तो दर रही, उलटा नुकसान होता है, ऐसी दशामें 'कारणसामग्री की कमी या विपरीतताकी खोज न करके किसी अदृष्टको कारण मानना दर्शनशास्त्रको युक्तिके क्षेत्रसे बाहर कर मात्र कल्पनालोकमें पहुँचा देना है। कोई भी कार्य अपनी कारणसामग्रीकी पूर्णता और प्रतिबन्धकी शून्यतापर निर्भर करता है। वह कारणसामग्री जिस प्रकारकी सिद्धि या असिद्धि के लिये अनुकूल बैठती है वैसा कार्य अवश्य ही उत्पन्न होता है । जगत्के विभिन्न कार्यकारणभाव सुनिश्चित हैं । द्रव्योंमें प्रतिक्षण अपनी पर्याय बदलनेकी योग्यता स्वयं है। उपादान और निमित्त उभयसामग्री जिस प्रकारकी पर्याय के लिये अनुकूल होती है वैसी ही पर्याय उत्पन्न हो जाती है। 'कर्म या अदृष्ट जगत्में उत्पन्न होनेवाले यावत् कार्योके कारण होते हैं' इस कल्पनाके कारण ही अदृष्टका पदार्थोंसे सम्बन्ध स्थापित करनेके लिए आत्माको व्यापक मानना पड़ा। कर्म क्या है ?
फिर कर्म क्या है ? और उसका आत्माके साथ सम्बन्ध कैसे होता है ? उसके परिपाककी क्या सीमा है ? इत्यादि प्रश्न हमारे सामने हैं ? वर्तमानमें आत्माकी
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