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जैनदर्शन
थी और श्री आत्माचरणको जज बनना था, इसलिये यह सब हुआ। अतः हम सब और आत्माचरण भी उस घटनाके नियत निमित्त हैं । अतः इस नियतिवादमें न कोई पुण्य है, न पाप, न सदाचार और न दुराचार । जब कर्तृत्व ही नहीं, तब क्या सदाचार और क्या दुराचार ? गोडसेको नियतिवादके नामपर ही अपना बचाव करना चाहिये था और जजको ही पकड़ना चाहिये था कि 'चूंकि तुम्हें हमारे मुकद्दमेका जज बनना था, इसलिये यह सब नियतिचक्र धूमा और हम सब उसमें फँसे ।' और यदि सबको बचाना है, तो पिस्तौलके भविष्य पर सब दोष थोपा जा सकता है कि 'न पिस्तौलका उस समय वैसा परिणमन होना होता, तो न वह गोडसेके हाथमें आती और न गाँधीजीकी छाती छिदती। सारा दोष पिस्तौलके नियत परिणमनका है ।' तात्पर्य यह कि इस नियतिवादमें सब माफ है, व्यभिचार, चोरी, दगाबाजी और हत्या आदि सब कुछ उन-उन पदार्थोंके नियत परिणाम हैं, इसमें व्यक्तिविशेषका कोई दोष नहीं। एक ही प्रश्न : एक ही उत्तर :
इस नियतिवादमें एक ही प्रश्न है और एक ही उत्तर । ‘ऐसा क्यों हुआ', 'ऐसा होना ही था' इस प्रकारका एक ही प्रश्न और एक ही उत्तर है। शिक्षा, दीक्षा, संस्कार, प्रयत्न और पुरुषार्थ, सबका उत्तर भवितव्यता। न कोई तर्क है, न कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । अग्निसे धुआ क्यों हुआ? ऐसा होना ही था। फिर गीला ईंधन न रहने पर धुंआ क्यों नहीं हुआ ? ऐसा ही होना था। जगत्में पदार्थों के संयोग-वियोगसे विज्ञानसम्मत अनन्त कार्यकारणभाव हैं। अपनी उपादान-योग्यता और निमित्त-सामग्रीके संतुलनमें परस्पर प्रभावित, अप्रभावित या अर्धप्रभावित कार्य उत्पन्न होते हैं। वे एक दूसरेके परिणमनके निमित्त भी बनते हैं। जैसे एक घड़ा उत्पन्न हो रहा है। इसमें मिट्टी, कुम्हार, चक्र, चीवर आदि अनेक द्रव्य कारणसामग्रीमें सम्मिलित हैं। उस समय न केवल घड़ा ही उत्पन्न हुआ है किन्तु कुम्हारकी भी कोई पर्याय, चक्रकी अमुक पर्याय और चीवरकी भी अमुक पर्याय उत्पन्न हुई है । अतः उस समय उत्पन्न होनेवाली अनेक पर्यायोंमें अपने-अपने द्रव्य उपादान हैं और बाकी एक दूसरेके प्रति निमित्त हैं। इसी तरह जगत्में जो अनन्त कार्य उत्पन्न हो रहे उनमें तत्तत् द्रव्य, जो परिणमन करते हैं, उपादान बनते हैं और शेष निमित्त होते हैं-कोई साक्षात् और कोई परम्परासे, कोई प्रेरक और कोई अप्रेरक, कोई प्रभावक और कोई अप्रभावक । यह तो योगायोगकी बात है । जिस प्रकारकी बाह्य और आभ्यन्तर कारणसामग्री जुट जाती है वैसा ही कार्य हो जाता है । आ० समन्तभद्रने लिखा है
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