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________________ लोकव्यवस्था "बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः ।" -बृहत्स्व० श्लो० ६० । अर्थात् कार्योत्पत्तिके लिए बाह्य और आभ्यन्तर-निमित्त और उपादान दोनों कारणोंकी समग्रता-पूर्णता ही द्रव्यगत निज स्वभाव है। ऐसी स्थितिमें नियतिवादका आश्रय लेकर भविष्यके सम्बन्धमें कोई निश्चित बात कहना अनुभवसिद्ध कार्यकारणभावकी व्यवस्थाके सर्वथा विपरीत है । यह ठीक है कि नियत कारणसे नियत कार्यकी उत्पत्ति होती है और इस प्रकारके नियतत्वमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। पर इस कार्यकारणभावकी प्रधानता स्वीकार करनेपर नियतिवाद अपने नियतरूपमें नहीं रह सकता। कारण हेतु : जैनदर्शनमें कारणको भी हेतु मानकर उसके द्वारा अविनाभावी कार्यका ज्ञान कराया जाता है। अर्थात् कारणको देखकर कार्यकारणभावकी नियतताके बलपर उससे उत्पन्न होनेवाले कार्यका भी ज्ञान करना अनुमान-प्रणालीमें स्वीकृत है । हाँ, उसके साथ दो शर्ते लगी हैं- 'यदि कारण-सामग्रीकी पूर्णता हो और कोई प्रतिबन्धक कारण न आवें, तो अवश्य ही कारण कार्यको उत्पन्न करेगा।' यदि समस्त पदार्थोंका सब कुछ नियत हो तो किसी नियत कारणसे नियत कार्यकी उत्पत्तिका उदाहरण भी दिया जा सकता था; पर सामान्यतया कारणसामग्रीकी पूर्णता और अप्रतिबन्धका भरोसा इसलिए नहीं दिया जा सकता कि भविष्य सुनिश्चित नहीं है। इसीलिये इस बातकी सतर्कता रखी जाती है कि कारणसामग्रीमें कोई बाधा उत्पन्न न हो । आजके यन्त्रयुगमें यद्यपि बड़े-बड़े यन्त्र अपने निश्चित उत्पादनके आँकड़ोंका खाना पूरा कर देते हैं पर उनके कार्यकालमें बड़ी सावधानी और सतर्कता बरती जाती है। फिर भी कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है । बाधा आनेकी और सामग्रीको न्यूनताकी सम्भावना जब है तब निश्चित कारणसे निश्चित कार्यकी उत्पत्ति संदिग्धकोटिमें जा पहुँचती है । तात्पर्य यह कि पुरुषका प्रयत्न एक हदतक भविष्यकी रेखाको बाँधता भी है, तो भी भविष्य अनुमानित और सम्भावित ही रहता है। नियति एक भावना है : इस नियतिवादका उपयोग किसी घटनाके घट जानेपर साँस लेनेके लिये और मनको समझानेके लिए तथा आगे फिर कमर कसकर तैयार हो जानेके लिए किया जा सकता है और लोग करते भी हैं, पर इतने मात्रसे उसके आधारसे वस्तुव्यवस्था नहीं की जा सकती। वस्तुव्यवस्था तो वस्तुके वास्तविक स्वरूप और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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