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________________ जैनदर्शन उसकी स्वतन्त्रता कही जा सकती है, पर उसके चाहने नचाहनेका प्रश्न ही नहीं है। आ० कुन्दकुन्दका अकर्तृत्ववाद : आचार्य कुन्दकुन्दने 'समयसार'में' लिखा है कि 'कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कोई गुणोत्पाद नहीं कर सकता। एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कुछ नया उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिए सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावके अनुसार उत्पन्न रहते हैं।' इस स्वभावका वर्णन करनेवाली गाथाको कुछ विद्वान् नियतिवादके समर्थनमें लगाते हैं। पर इस गाथामें सीधी बात तो यही बताई है कि कोई द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कोई नया गुण नहीं ला सकता, जो आयगा वह उपादान योग्यताके अनुसार ही आयगा। कोई भी निमित्त उपादानद्रव्यमें असद्भूत शक्तिका उत्पादक नहीं हो सकता, वह तो केवल सद्भूत शक्तिका संस्कारक या विकासक है। इसीलिए गाथाके द्वितीयार्धमें स्पष्ट लिखा है कि 'प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभावके अनुसार उत्पन्न होते हैं।' प्रत्येक द्रव्यमें तत्कालमें भी विकसित होनेवाले अनेक स्वभाव और शक्तियाँ हैं। उनमेंसे अमुक स्वभावका प्रकट होना या परिणमन होना तत्कालीन सामग्रीके ऊपर निर्भर करता है। भविष्य अनिश्चित है। कुछ स्थूल कार्यकारणभाव बनाये जा सकते हैं, पर कारणका अवश्य ही कार्य उत्पन्न करना सामग्रीकी समग्रता और अविकलतापर निर्भर है।२ "नावश्यकारणानि कार्यवन्ति भवन्ति"-कारण अवश्य ही कार्यवाले हों, यह नियम नहीं है । पर वे कारण अवश्य ही कार्यको उत्पन्न करेंगे, जिसकी समग्रता और निर्बाधताकी गारन्टी हो। आचार्य कुन्दकुन्दने जहाँ प्रत्येक पदार्थके स्वभावानुसार परिणमनकी चर्चा की है वहाँ द्रव्योंके परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावको भी स्वीकार किया है। यह पराकर्तृत्व निमित्तके अहंकारकी निवृत्तिके लिये है । कोई निमित्त इतना अहंकारी न हो जाय कि वह समझ बैठे कि मैंने इस द्रव्यका सब कुछ कर दिया है। वस्तुतः नया कुछ हुआ नहीं, जो उसमें था, उसका ही एक अंश प्रकट हुआ है। जीव और कर्मपुद्गलके परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावकी चर्चा करते हुए आ० कुन्दकुन्दने स्वयं लिखा है कि "जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमदि ॥ १. देखो, गाथा पृ० ८२ पर। २, न्यायबि० टीका २।४६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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