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________________ कलव्यवस्था विकुव्वदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तव जीवगुणे । अण्णोष्णणिमित्तं तु कत्ता आदा सएण भावेण || पुग्गलकम्मकदाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ॥" - समयसार गा० ८६-८८ । अर्थात् जीवके भावोंके निमित्तसे पुद्गलोंकी कर्मरूप पर्याय होती है और पुद्गलकर्मोंके निमित्तसे जीव रागादिरूपसे परिणमन करता है । इतना विशेष है कि जीव उपादान बनकर पुद्गलके गुणरूपसे परिणमन नहीं कर सकता और न पुद्गल उपादान बनकर जीवके गुणरूपसे परिणत हो सकता है । केवल परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धके अनुसार दोनोंका परिणमन होता है । अतः आत्मा उपादानदृष्टिसे अपने भावोंका कर्ता है, वह पुद्गलकर्मके ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मरूप परिणमनका कर्त्ता नहीं है । इस स्पष्ट कथनका फलितार्थ यह है कि परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव होनेपर भी हर द्रव्य अपने गुण-पर्यायों का ही कर्त्ता हो सकता है । अध्यात्ममें कर्तृत्वव्यवहार उपादानमूलक है । अध्यात्म और व्यवहारका यह मूलभूत अन्तर है कि अध्यात्मक्षेत्रमें पदार्थोंके मूल स्वरूप और शक्तियोंका विचार होता है तथा उसी के आधारसे निरूपण होता है जब कि व्यवहारमें परनिमित्तकी प्रधानता से कथन किया जाता है । ' कुम्हारने घड़ा बनाया' यह व्यवहार निमित्तमूलक है क्योंकि 'घड़ा' पर्याय कुम्हारकी नहीं है किन्तु उन परमाणुओंकी है जो घड़े के रूपमें परिणत हुए हैं । कुम्हारने घड़ा बनाते समय भी अपने योगहलनचलन और उपयोगरूपसे ही परिणति की है । उसका सन्निधान पाकर मिट्टीके परमाणुओंने घट पर्यायरूपसे परिणति कर ली है । इस तरह हर द्रव्य अपने परिणमनका स्वयं उपादानमूलक कर्त्ता है । आ० कुन्दकुन्दने इस तरह निमित्तमूलक कर्तृत्वव्यवहारको अध्यात्मक्षेत्रमें नहीं माना है । पर स्वकर्तृत्व तो उन्हें हर तरह इष्ट है ही, और उसीका समर्थन और विवेचन उनने विशद रीतिसे किया है । परन्तु इस नियतिवादमें तो स्वकर्तृत्व ही नहीं है । हर द्रव्यकी प्रतिक्षणकी अनन्त भविष्यत्कालीन पर्यायें क्रम-क्रमसे सुनिश्चित हैं । वह उनकी धाराको नहीं बदल सकता । वह केवल नियतिपिशाचिनीका क्रीडास्थल है और उसके यन्त्रसे अनन्तकाल तक परिचालित रहेगा । अगले क्षणको वह असत्से सत् या तमसे प्रकाशकी ओर ले जानेमें अपने उत्थान, बल, वीर्य, पराक्रम या पौरुषका कुछ भी उपयोग नहीं कर सकता । जब वह अपने भावोंको ही नहीं बदल सकता, तब स्वकर्तृत्व कहाँ रहा ? तथ्य यह है कि भविष्य के प्रत्येक क्षणका अमुक रूप होना अनिश्चित है । मात्र इतना निश्चित है कि कुछ-न-कुछ होगा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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