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________________ लोकव्यवस्था रूपसे परिवर्तन हो जाता है । तात्पर्य यह कि पुद्गल और संसारी जीवोंके परिणमन अपनी तत्कालीन सामग्रीके अनुसार परस्पर प्रभावित होते रहते हैं । किन्तु केवल यही अनिश्चित है कि 'अगले क्षणमें किसका क्या परिणाम होगा? कौन-सी पर्याय विकासको प्राप्त होगी? या किस प्रकारकी सामग्री उपस्थित होगी ?' यह तो परिस्थिति और योगायोगके ऊपर निर्भर करता है । जैसी सामग्री उपस्थित होगी उसके अनुसार परस्पर प्रभावित होकर तात्कालिक परिणमन होते जायेंगे। जैसे एक मिट्टीका पिंड है, उसमें घड़ा, सकोरा, प्याला आदि अनेक परिणमनोंके विकासका अवसर है। अब कुम्हारकी इच्छा, प्रयत्न और चक्र आदि जैसी सामग्री मिलती है उसके अनुसार अमुक पर्याय प्रकट हो जाती है। उस समय न केवल मिट्टीके पिंडका ही परिणमन होगा, किन्तु चक्र और कुम्हारकी भी उस सामग्रीके अनुसार पर्याय उत्पन्न होगी। पदार्थों के कार्यकारणभाव नियत हैं । 'अमुक कारणसामग्रीके होनेपर अमुक कार्य उत्पन्न होता है' इस प्रकारके अनन्त कार्यकारणभाव उपादान और निमित्तकी योग्यतानुसार निश्चित हैं । उनकी शक्तिके अनुसार उनमें तारतम्य भी होता रहता है। जैसे गीले ईंधन और अग्निके संयोगसे धुआँ होता है, यह एक साधारण कार्यकारणभाव है। अब नीले इंधन और अग्निकी जितनी शक्ति होगी उसके अनुसार उसमें प्रचुरता या न्यूनताकमीबेशी हो सकती है। कोई मनुष्य बैठा हुआ है, उसके मनमें कोई-न-कोई विचार प्रतिक्षण आना ही चाहिये। अब यदि वह सिनेमा देखने चला जाता है तो तदनुसार उसका मानस प्रवृत्त होगा और यदि साधुके सत्संगमें बैठ जाता है तो दूसरे ही भव्य भाव उसके मनमें उत्पन्न होंगे। तात्पर्य यह कि प्रत्येक परिणमन अपनी तत्कालीन उपादान-योग्यता और सामग्रीके अनुसार विकसित होते हैं । यह समझना कि 'सबका भविष्य सुनिश्चित है और उस सुनिश्चित अनन्तकालीन कार्यक्रमपर सारा जगत् चल रहा है' महान् भ्रम है। इस प्रकारका नियतिवाद न केवल कर्त्तव्यभ्रष्ट ही करता है अपितु पुरुषके अनन्त बल, वीर्य, पराक्रम, उत्थान और पौरुषको ही समाप्त कर देता है । जब जगत्के प्रत्येक पदार्थका अनन्तकालीन कार्यक्रम निश्चित है और सब अपनी नियति की पटरीपर ढंडकते जा रहे हैं, तब शास्त्रोपदेश, शिक्षा, दीक्षा और उन्नतिके उपदेश तथा प्रेरणाएँ बेकार हैं । इस नियतिवादमें क्या सदाचार और क्या दुराचार ? स्त्री और पुरुषका उस समय वैसा संयोग होना ही था। जिसने जिसकी हत्या की उसका उसके हाथसे वैसा होना ही था। जिसे हत्याके अपराधमें पकड़ा जाता है, वह भी जब नियतिके परवश था तब उसका स्वातंत्र्य कहाँ है, जिससे उसे हत्याका कर्त्ता कहा जाय ? यदि वह यह चाहता कि 'मैं हत्या न करूँ और न कर सकता' तो ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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