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________________ ६६ जैनदर्शन विलक्षण परिणमन ही करा सकता है कि वह अपने सत्त्वको ही समाप्त कर दे और सर्वथा उच्छिन्न हो जाय । ३. कोई भी द्रव्य किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं कर सकता । एक चेतन न तो अचेतन हो सकता है और न चेतनान्तर ही वह चेतन 'तच्चेतन' ही रहेगा और वह अचेतन ' तदचेतन' ही । ४. जिस प्रकार दो या अनेक अचेतन पुद्गलपरमाणु मिलकर एक संयुक्त समान स्कन्धरूप पर्याय उत्पन्न कर लेते हैं उस तरह दो चेतन मिलकर संयुक्त पर्याय उत्पन्न नहीं कर सकते, प्रत्येक चेतनका सदा स्वतन्त्र परिणमन रहेगा । ५. प्रत्येक द्रव्यकी अपनी मूल द्रव्यशक्तियाँ और योग्यताएँ समानरूपसे सुनिश्चित हैं, उनमें हेरफेर नहीं हो सकता । कोई नई शक्ति कारणान्तरसे ऐसी नहीं आ सकती, जिसका अस्तित्व द्रव्यमें न हो । इसी तरह कोई विद्यमान शक्ति सर्वथा विनष्ट नहीं हो सकती । ६. द्रव्यगत शक्तियोंके समान होनेपर भी अमुक चेतन या अचेतनमें स्थूलपर्याय-सम्बन्धी अमुक योग्यताएँ भी नियत हैं । उनमें जिसकी सामग्री मिल जाती है उसका विकास हो जाता है । जैसे कि प्रत्येक पुद्गलाणुमें पुद्गलकी सभी द्रव्ययोग्यताएँ रहनेपर भी मिट्टीके पुद्गल ही साक्षात् घड़ा बन सकते हैं, कंकड़ोंके पुद्गल नहीं, तन्तुके पुद्गल ही साक्षात् कपड़ा बन सकते हैं, मिट्टी के पुद्गल नहीं । यद्यपि घड़ा और कपड़ा दोनों ही पुद्गलकी पर्यायें हैं । हाँ, कालान्तर में परम्परासे बदलते हुए मिट्टी के पुद्गल भी कपड़ा बन सकते हैं। और तन्तुके पुद्गल भी घड़ा । तात्पर्य यह कि संसारी जीव और पुद्गलोंकी मूलतः समान शक्तियाँ होनेपर भी अमुक स्थूल पर्यायमें अमुक शक्तियाँ ही साक्षात् विकसित हो सकती हैं । शेष शक्तियाँ बाह्य सामग्री मिलनेपर भी तत्काल विकसित नहीं हो सकतीं । ७. यह नियत है कि उस द्रव्यकी उस स्थूल पर्याय में जितनी पर्याययोग्यताएँ हैं उनमेंसे ही जिस-जिसकी अनुकूल सामग्री मिलती है उस उसका विकास होता है, शेष पर्याययोग्यताएँ द्रव्यकी मूलयोग्यताओंकी तरह सद्भाव में ही रहती हैं । ८. यह भी नियत है कि अगले क्षणमें जिस प्रकारको सामग्री उपस्थित होगी, द्रव्यका परिणमन उससे प्रभावित होगा । सामग्रीके अन्तर्गत जो भी द्रव्य हैं, उनके परिणमन भी इस द्रव्यसे प्रभावित होंगे । जैसे कि ऑक्सिजनके परमाणुको यदि हाइड्रोजनका निमित्त नहीं मिलता तो वह ऑक्सीजनके रूपमें ही परिणत रह जाता है, पर यदि हाइड्रोजनका निमित्त मिल जाता है तो दोनोंका ही जल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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