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पाँच स्थावर मेरु पर्वत से छह दिशाओं में अंगुल के संख्यातवें भाग से असंख्यात हजार योजन लोकान्त तक एक प्रदेशी श्रेणी (विदिशा ) को छोड़ कर चाहे जहाँ उत्पन्न होते हैं । इनमें भी पूर्वोक्त प्रकार से दो दो अलावा ( आलापक) कहना | इस तरह पाँच स्थावर के छह दिशा श्रासरी ६०
लावा हुए और स के १६ दण्डकों के ३८ अलावा हुए। ये सब मिलकर ६८ अलावा हुए ठिकाणा (स्थान) यसरी तो अलावा होते हैं । ठिकाणा यसरी अनेक लावों में पहला अलावा देश थकी समुद्धात इलिकागति का है और दूसरा अलावा सर्व थकी समुद्घात डेडका ( मेढक ) गति का है । सेवं भंते !!
सेवं भंते !
( थोकड़ा नं० ५४ )
श्री भगवतीजी सूत्र के छठे शतक के सातवें उद्देशे में 'काल विशेषण' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं-
१ अहो भगवान् ! कोठा में खाई आदि में बन्द किये हुए छांदण दिये हुए धान की योनि (अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति ) कितने काल तक रहती है ? हे गौतम ! जधन्य अन्तर्मुहूर्तः सचित रहती है, पीछे अचित्त श्रवीज हो जाती है, उत्कृष्ट शालि ( कलमी आदि अनेक जाति के चावल ), व्रीहि ( सामान्य जाति
* जघन्य सर्व धान की योनि अन्तर्मुहूर्त तक सचित्त रहती है ।