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( थोकड़ा नं०.५० ) श्री भगवतीजी सूत्र के छठे शतक के चौथे उद्देशे में 'पच्चक्खाण' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं
पच्चक्खाणं जाण, कुव्व तिष्णेव उणिव्चत्ती । सपए सुसम्मि य, एमेए दंडगा चउगे ॥ १ - अहो भगवान् ! क्या जीव पच्चक्खाणी है, पच्चक्खाणी है या पच्चक्खाणापच्चक्खाणी है ? हे गौतम ! समुच्चय जीव पच्चक्खाणी भी है, अपच्चक्खाणी भी है, पच्चक्खाणापचक्खाणी भी है। नारकी, देवता, पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय ये २२ दंडक पच्चक्खाणी । तिर्यंचपंचेन्द्रिय में भांगा पावे २ - पच्चक्खाणी और पच्चक्खाणापच्चक्खाणी । मनुष्य में भांगा पांवे तीनों ही, समुच्चय जीव माफक कह देखा । २ - श्रहो भगवान् ! क्या जीव पच्चक्खाण को जानता है, पच्चकखाण को जानता है, पच्चक्खाणापच्चक्खाण को जानता है ? हे गौतम ! १६ दण्डक ( नारकी, देवता, तिर्यच पंचेन्द्रिय, मनुष्य ) के समदृष्टि पंचेन्द्रिय जीव तीनों ही भांगों को ( पच्चक्खाण को, अपच्चक्खाण को और पच्चक्खाणापच्चक्खाण को ) जानते हैं। शेष ८ दंडक ( पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय) के जीव तीनों ही भांगों को नहीं जानते हैं । ..
३ - अहो भगवान् ! क्या जीव पंच्चक्खाण करता है, अपच्चक्खाण करता है, पच्चक्खाणापच्चक्खाण करता है ? हे
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