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(थोकड़ा नं० ४४.)... श्री भगवतीजी सूत्र के पांचवें शतक के आठवें उद्देशे में 'सोवचय सावचय' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं--.
१-अहो भगवान् ! क्या जीव सोवचया हैं ( सिर्फ उपजते ही हैं, चवते नहीं)? या सावचया हैं (सिर्फ चवते ही हैं, उपजते नहीं)? या सोवचया सावचया हैं ( उपजते भी हैं,
प्रैवेयक के नीचे की त्रिक की संख्याता सैंकड़ों वर्षों की, वीचली त्रिक ... की संख्याता हजारों वर्षों की, ऊपर की त्रिक की संख्याता लाखों वर्षों की, चार अनुत्तर विमान की पल के असंस्थातवें भाग की, और सर्वार्थ सिद्ध की पल के संख्यातवें भाग की है। . . . .
* १ सोवचय-वृद्धि सहित अर्थात् पहले जितने जीव हैं, उतने बने । रहें,और नवीन जीवों की उत्पत्ति से संख्या बढ़ जाय, उसे सोवचय कहते हैं। २ सावचय-हानिसहित अर्थात् पहले जितने जीव हैं, उनमें से कितने ही जीवों की मृत्यु होजाने से संख्या घट जाय, उसे सावचय कहते हैं। ... .. .. . ..... ...... .... __३ सोवचय सावचय-वृद्धि और हानि सहित अर्थात् जीवों के जन्मने से और मरने से संख्या घट जाय बढ़ जाय, या बराबर अवस्थित.) रहे उसे सोवचय सावचय कहते हैं। :.:...:..::.:..:.. ___.४ निरुवचय निरवचय वृद्धि और हानि रहित अर्थात् जीवों की ..
संख्या न बढे और न घटे; किन्तु अवस्थित रहे. उसको निस्वचय निरवचय कहते हैं। : : :::
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