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________________ ५४ हुए अर्थ के लिए विनयपूर्वक बारम्बार क्षमा मांगी। फिर तप संयम से अपनी आत्मा को भावते हुए विचरने लगे। ... .. . सेवं भंते ! सेवं भंते !! ... ... (थोकड़ा नं० ४३) __ श्री भगवतीजी सूत्र के पांचवें शतक के आठवें उद्देशे में 'बर्द्धमान हायमान अवडिया' का थोकड़ा चलता है सो कहते हैं-- जिस जगह जीव आते जाते वढते रहते हैं उसे वड्ढमाण (बर्द्धमान ) कहते हैं, जिस जगह जीव आते जाते घटते हैं उसे हायमान कहते हैं । जिस जगह जीव आते नहीं जाते नहीं अथवा सरीखे आते और सरीखे जाते हैं उसे अवडिया (अवस्थित ) कहते हैं । इस तरह वड्ढमाण, हायमाण, अवट्ठिया ये तीन भांगे होते हैं। समुच्चय जीव में भांगो पावे एक-अवट्ठिया। २४ दण्डक में भांगा पावे ३ । सिद्ध भगवान् में भांगा पावे २-पहला, तीसरा। समुच्चय जीव में भांगो पावे एक--अचडिया, जितने जीव हैं सदाकाल उतने ही रहते हैं, घटते बढ़ते नहीं। १६ दण्डक ( पांच स्थावर छोड़कर ) में भांगा पावे ३, जिसमें हायमान वड्ढमाण की स्थिति जघन्य एक समय की, उत्कृष्ट प्रावलिका के असंख्यातवें भाग की है । अवट्ठिया की स्थिति जघन्य एक
SR No.010034
Book TitleBhagavati Sutra ke Thokdo ka Dwitiya Bhag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1957
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size6 MB
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