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द्वितीय अध्याय जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व
जीवनवृत्त :
हिन्दी के साहित्येतिहास में आधुनिक काल के द्वितीय उत्थान का नामकरण जिस युगप्रवर्तक महान् आत्मा के नाम पर हुआ, उनका पूरा नाम महावीरप्रसाद द्विवेदी था। उत्तरप्रदेश के रायबरेली जिले में एक बड़ा-मा लगभग ५०-६० घरों का गाँव मे है-दौलतपुर। इसी गाँव के निर्धन ब्राह्मण-परिवार में वैशाख शुक्ल ४, संवत् १९२१, तदनुसार ९ मई, १८६४ ई० की रात्रि में पिछले पहर एक बालक ने जन्म लिया। यही बालक आगे चलकर हिन्दी-भाषा और साहित्य के इतिहास में युगनेता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। उस समय कौन जानता था कि दौलतपुर में जन्म लेनेवाला बालक आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी बनकर हिन्दी के लेखकों का पथनिर्देश करेगा।
द्विवेदीजी के गाँव में ब्राह्मण के बीच अध्ययन की प्रवृत्ति बड़ी व्यापक थी। स्वयं उनके पितामह पं० हनुमन्त द्विवेदी संस्कृत के बड़े प्रकाण्ड पण्डित थे । इनके तीन पुत्र हुए-दुर्गाप्रसाद, रामसहाय और रामजन । इनमें से रामजन का बचपन में ही देहावसान हो गया । पं० हनुमन्त द्विवेदी अपनी असामयिक मृत्यु के कारण बाकी दोनों पुत्रों को पूर्ण सुशिक्षित नहीं कर सके। इस कारण दुर्गाप्रसाद को जीविका के लिए बैसवाड़े में ही गौना के तालुकेदार के यहां कहानी सुनाने की नौकरी करनी पड़ी। पं० रामसहायजी का जीवनवृत्त हिन्दी के अध्येताओं के लिए विशेष महत्त्व रखता है; क्योंकि इन्हीं को आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का पिता बनने का गौरव प्राप्त हुआ था । वे सेना में भरती हो गये थे। लेकिन, सन् १८५७ ई० के गदर में विद्रोही सिपाहियों के साथ वे भी भाग गये। इसी क्रम में एक बार सतलज नदी की धारा इन्हें काफी दूर तक बहा ले गई। सचेत होनेपर घास के डण्ठलों का रस चूसकर उन्होंने अपनी जान बचाई। बाद में साधु के वेश में किसी प्रकार माँगते-खाते वे दौलतपुर पहुँचे । दुबारा जीविका की तलाश में उन्हें बम्बई जाना पड़ा । वहाँ उन्होंने चिमनलाल और नरसिंहलाल जैसे सेठों के यहां नौकरी की। पूजा-पाठ में अटूट विश्वास रखनेवाले पं० रामसहाय का देहावसान सन् १८९६ ई० में हो गया ।