________________
३० ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व उनकी कुल दो सन्तानें हुई–एक तो आचार्य द्विवेदी और दूसरी उनकी बहन । पं० रामसहायजी को हनुमानजी का इष्ट था,इस कारण उन्होंने बेटे का नाम 'महावीरसहाय' रखा। बाद मे स्कूल के अध्यापक की गलती से प्रमाण-पत्र में 'महावीरप्रसाद' नाम 'महावीरसहाय' की जगह लिख दिया गया। यही नाम आगे चलकर स्थायी हो गया। अपनी शिक्षा-दीक्षा के प्रारम्भ के सम्बन्ध मे स्वय द्विवेदीजी ने लिखा है :
"मैं एक ऐसे देहाती का एकमात्र आत्मज हूँ, जिसका मासिक वेतन दस रु० था। अपने गाँव के देहाती मदरसे मे थोड़ी-सी उर्दू और घर पर थोड़ी-सी संस्कृत पढ़कर तेरह वर्ष की उम्र में छब्बीस मील दूर रायबरेली के जिला स्कूल में अँगरेजी पढ़ने गया। आटा, दाल घर से पीठ पर लादकर ले जाता था। दो आने महीने फीस देता था। दाल ही में आटे के पेड़े या टिकियाएँ पका करके पेटपूजा किया करता था। रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था। संस्कृत-भाषा उस समय स्कूल में वैसे ही अछूती समझी गई थी, जैसी मद्रास के नम्बूदरी ब्राह्मणों में वहाँ की शूद्र जाति समझी जाती है। विवश होकर अंगरेजी के साथ फारसी पढ़ता था। एक वर्ष किसी तरह वहाँ काटा। फिर पुरबा, फतेहपुर और उन्नाव के स्कूलों में चार वर्ष काटे। कौटुम्बिक दुरवस्था के कारण मैं इससे आगे न बढ़ सका। मेरी स्कूली शिक्षा की वहीं समाप्ति हो गई।"१ द्विवेदीजी की कुल शिक्षा-दीक्षा इतनी ही हुई। परन्तु, इस प्रसंग में उनकी कुशाग्रता और पढने की उद्दाम लालसा की प्रशंसा करनी पड़ेगी। काव्यकाल में ही उनके चाचा ने 'दुर्गासप्तशती', 'विष्णुसहस्रनाम', 'मुहूर्त्तचिन्तामणि', 'शीघ्रबोध' 'अमरकोश' आदि के कई अंश उन्हें कण्ठान करा दिये थे। इसी घरेलू पढ़ाई की नींव पर उन्होंने अपने गांव की पाठशाला में हिन्दी, उर्दू और गणित की प्रारम्भिक शिक्षा पाई । अँगरेजी का ज्ञान उन दिनों भारतीयों के लिए धीरे-धीरे कुछ सीमा तक आवश्यक एवं आकर्षक भी बनता जा रहा था। उन्हीं की शिक्षा पाने के लिए उन्हें रायबरेली के जिला स्कूल में पढ़ने के लिए तेरह मील पैदल जाना पड़ता था। उन दिनों की एक मार्मिक घटना का विवरण डॉ० उदयभानु सिंह ने इन शब्दों में दिया है :
"एक बार तो जाड़े की ऋतु में सारी रात पैदल चलकर पाँच बजे सबेरे घर पहुँचे। द्वार बन्द था, माँ चक्की पीस रही थी। बालक की पुकार सुनकर सप्रेम
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'मेरी जीवनरेखा', भाषा : द्विवेदी-स्मृति
अंक, पृ० १२॥