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________________ शोध-निष्कर्ष [२५१ वक्तव्य दिये हैं।' निबन्धों की तुलना में द्विवेदीजी का आलोचनात्मक साहित्य अधिक प्रौढ है। प्राचीन भारतीय आदर्शों पर उनके समीक्षा-सिद्धान्त आधुत थे और उन्हीं सिद्धान्तों पर उन्होने कविता, नाटक आदि के सम्बन्ध में अपनी समीक्षा-दिशा निर्धारित की। द्विवेदीजी की समीक्षाओं का मूल प्रेरक स्रोत उनका सम्पादकीय जीवन माना जा सकता है। लोकजीवन के मंगल की कामना एवं रसात्मकता को वे काव्य, नाटक आदि का लक्ष्य मानते थे। डॉ० शंकरदयाल चौऋषि ने ठीक ही लिखा है : __ "द्विवेदीजी की समीक्षाएं तथा काव्य-विवेचनाएँ केवल कर्त्तव्य-पालन के निमित्त नहीं होती थीं। वे सोद्देश्य तथा निर्माणकारी होती थी। वे उनके द्वारा काव्यकारों का मार्गदर्शन भी करना चाहते थे। इसलिए, उन्होंने कठोर, मर्यादावादी तथा संयमित आलोचक का चोला धारण किया था।"२ निर्भीक एवं लोकमंगलकारी आलोचक होने के साथ-ही-साथ द्विवेदीजी अपने समसामयिक वातावरण के प्रति सुधारात्मक दृष्टिकोण रखनेवाले सामाजिक प्राणी भी थे । अतएव, समीक्षा के बीच में सामयिक समस्याओं का प्रसंग आने पर वे समीक्षक-धर्म त्याग कर सुधारक-वक्तव्य देने लगते थे। उनकी ऐसी नीति के दर्शन अधिकांशतः पुस्तक-परीक्षाओं में दीख पड़ते हैं। जैसे, सन् १९०७ ई. की 'सरस्वती' में 'स्त्रीशिक्षा' पुस्तक की आलोचना करते हुए उन्होंने स्त्री-शिक्षा की आवश्यकता पर ही विस्तार से विचार किया है। ऐसी समीक्षा समस्याप्रधान हो जाती है और समीक्षक-धर्म से च्यूत होकर ही लिखी जा सकती है। द्विवेदीजी की समीक्षाओं में बहुधा यह दोष मिलता है। इसका कारण एकमेव यही माना जा सकता है कि द्विवेदीजी मुख्यतः लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित थे। कुल मिलाकर, द्विवेदीजी के १. (क) "सच तो यह है कि चाहे जिस कारण से भी हो, द्विवेदीजी की निबन्धकारिता का स्वतन्त्र रूप से विकास न हो सका। उनकी छोटीछोटी रचनाएँ संख्या में लगभग ढाई सौ है, मगर सब टिप्पणी जैसी हैं।" -श्रीहंसकुमार तिवारी : 'हिन्दी-साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग १३, पृ० १०४ । (ख) स्वाधीन चिन्तन, अनभिभूत विचार, अछूती भावना-जो निबन्ध की आन्तरिक स्वरूप-शक्तियाँ है, इनके निबन्धों में कम ही मिलती है। इनमें संग्रहबोध की विविधता, जानकारी की बहुश्रु तता और पत्रकारिता की सूचना-सम्पन्नता ही अधिक है।"-श्रीजयनाथ नलिन : हिन्दी-- निबन्धकार, पृ० १०३। २. डॉ० शंकरदयाल चौऋषि : 'द्विवेदी-युग की हिन्दी-गद्यशैलियों का अध्ययन', पृ० १५९ ।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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