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२५२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व आलोचना-साहित्य के सन्दर्भ में यही कहा जा सकता है कि आचार्य-परम्परा में द्विवेदीजी ने भी अपने समीक्षात्मक निष्कर्षों का सर्जन किया और तदनुकूल आचरण की आदर्शवादी नीति हिन्दी-जगत् के सम्मुख रखी। डॉ० राजकिशोर कक्कड़ ने उनके समीक्षा-साहित्य के बारे में लिखा है : “उनका महत्त्व उनके आलोचनात्मक साहित्य की अपेक्षा उनकी प्रेरणा पर निर्मित साहित्य के लिए अधिक है। वे साहित्य के आलोचक से कहीं अधिक जीवन, भाषा, साहित्य-रचना, आदर्श, सामयिक नीति तथा अपने समस्त युग की गतिविधि के आलोचक थे।"१
रह गई द्विवेदीजी की कविता। काव्यक्षेत्र भी द्विवेदीजी की लेखनी से अछूता नही बचा है। उन्होने ब्रजभाषा, हिन्दी, संस्कृत और बैसवाड़ी में कविताएं लिखी हैं। अपनी मौलिक और अनूदित कविताओं में उन्होंने विविध सामाजिक, पौराणिक और साहित्यिक विषयों का प्रस्तुतीकरण किया है। अनुवादों में तो द्विवेदीजी कविता के सौन्दर्य, रसात्मकता एवं भाव-प्रकाशन क्षमता की रक्षा कर सके हैं, परन्तु मौलिक, कविताओं में ऐसा नहीं हो सका है। उनकी अधिकांश मौलिक कविताएँ गद्य का रूपान्तर-मान बनकर रह गई हैं। उनमे कहीं भी कवित्व एवं रसात्मकता के दर्शन नहीं होते । मौलिक कविताओ की तुलना मे द्विवेदीजी की अनूदित कविताएं अधिक अच्छी बन पड़ी है। मौलिक काव्य में जो भी असरसता एवं प्रवाहहीनता परिलक्षित होती है, उसका कारण द्विवेदीजी की अतिशय नैतिकता एवं आदर्शवादिता को ही माना जा सकता है। कविताओं में भी इस नीरसता एवं कवि के रूप में द्विवेदीजी की असफलता को विभिन्न आलोचकों ने भी लक्ष्य किया है ।२ अतएव, द्विवेदीजी की कविताओं को उनकी प्रसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता है । १. डॉ० राजकिशोर कक्कड़ : 'आधुनिक हिन्दी-साहित्य में आलोचना का
विकास', प० ५८८ ।। २. (क) "द्विवेदीजी के अनुवादों को छोड़कर अन्य लगभग सभी मौलिक
रचना विचारों अथवा भावों की पद्य में परिणति-मात्र हैं। उनमें उन आनन्दस्वरूप रसों की निष्पत्ति करनेवाले गुणों-शब्द एवं अर्थसौन्दर्यों का नितान्त अभाव है।...माधुर्य को तो द्विवेदीजी की नैतिकता साफ हजम कर गई है।"-डॉ० रामकुमार वर्मा : 'आधुनिक हिन्दी-काव्यभाषा', पृ० ४०६ । "द्विवेदीजी के अपने काव्य में उनकी देशभक्ति, भाषाशक्ति, जनताभक्ति आदि उच्च भावनाओं का प्रसार हमें प्रभावित करता है, यद्यपि उनकी अभिव्यक्ति में कवि को सफलता नहीं मिली है।"-डॉ. विश्वम्भरनाथ उपाध्याय : 'आधुनिक हिन्दी-कविता : सिद्धान्त और समीक्षा',
प० १२४ । (ग) "रस की प्रधानता देने पर भी वे अपनी रचनाओं में रस की निष्पत्ति
करने में असमर्थ रहे हैं।"-डॉ. सुरेशचन्द्र गुप्त : 'आधुनिक हिन्दीकवियों के काव्य-सिद्धान्त, पृ० १२२-१२३ ।