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शोध-निष्कर्ष [ २४७ कपट एवं चाटुकारिता का आचरण रखा, उन्हें द्विवेदीजी का स्वभाव इस्पात की तरह कठोर मालूम हुआ। उनके स्वभाव का यह विरोधाभासपूर्ण जीवन-दर्शन ही उनकी उपलब्धियों एवं सफलताओं के मूल में रहा।
साहित्यिक उपलब्धियों के नाम पर उनकी रचनाओं की संख्या बहुत बड़ी है। गद्य और पद्य में उनकी मौलिक-अनूदित-प्रकाशित रचनाओं की संख्या ८० से ऊपर है। आचार्य द्विवेदीजी की पुस्तकों में सभी कोटि की विभिन्न विषयों की रचनाओं का संकलन हुआ है। उनकी रचना का अधिकांश पुस्तकाकार प्रकाशित होने के पूर्व 'सरस्वती' के पन्नों पर छप चुका था। इस कारण उनकी रचनाओं में साहित्यिक निर्मिति की वैसी सुडौल गरिमा नहीं दीखती है, जैसी साहित्यकार की स्थायी कृति में दीखनी चाहिए । पत्रिका में प्रकाशित साहित्य के अनुरूप बिखराव एवं अशृखलित विन्यास उनकी कविताओ से निबन्धों-टिप्पणियो तक दीखता है। पुस्तक के रूप में सर्वप्रथम उनकी कविता-कृति 'देवीस्तुतिशतक' सन् १८९२ ई० में छपी थी और उसके बाद जब प्रकाशन का सिलसिला जारी हआ. तब आचार्यप्रवर के निधन के पश्चात् भी नहीं रुका । कुछ विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि द्विवेदीजी ने प्रतिवर्ष एक हजार पृष्ठ की गति से लेखन किया और २५ वर्ष की अवधि में लगभग २५ हजार पृष्ठ सामग्री लिख डाली। उनकी रचनाओं की विस्तृत सूची एवं उनमें व्याप्त वैविध्य को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि द्विवेदीजी व्यक्ति नहीं संस्था थे। अँगरेजी के ख्यात विद्वान् समालोचक डॉ० जॉनसन के सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है कि जितना कार्य अकेले जॉनसन ने किया, उतना कार्य कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा ही सम्भव था। यही बात द्विवेदीजी के सन्दर्भ में भी दुहराई जा सकती है। उन्होंने हिन्दी-भाषा और साहित्य के संस्कार तथा परिष्कार का जो अभूतपूर्व कार्य किया, वह किसी अकेले व्यक्ति के नहीं, कई विशाल संस्थाओं के ही वश की बात थी। द्विवेदीजी द्वारा किया गया यह ऐतिहासिक कार्य ही उनके रचनात्मक साहित्य की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण एवं गौरवशाली है। साहित्य किस कोटि का है, इसकी अपेक्षा उन्होंने साहित्य किस प्रकार का होना चाहिए एवं कैसे लिखा जाना चाहिए, इसके निर्देश पर ध्यान दिया। भाषा और साहित्य के इसी परिष्कारात्मक दृष्टिकोण को लेकर उनकी साहित्यिक महत्ता स्वीकार की जा सकती है । डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी इस विलक्षणता का उल्लेख किया है :
"...संसार के आधुनिक साहित्य में यह एक अद्भुत-सी बात है कि एक आदमी अपने 'क्या' के बल पर नहीं, बल्कि कैसे' के बल पर साहित्य का स्रष्टा हो गया।"' आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का सम्पूर्ण रचनात्मक साहित्य अधिकांशतः उत्तम कोटि का नहीं है एवं उसके आधार पर द्विवेदीजी अपने ही युग के कई साहित्यकारों
१. डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी : 'विचार और वितर्क', पृ०५३।