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२४६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की आदत नहीं छोड़ी । वास्तविकता तो यह है कि इन्ही पदों पर कार्य करते समय उन्होंने मराठी, संस्कृत, हिन्दी, अँगरेजी आदि का विधिवत् अध्ययन किया और हिन्दी में अपनी साहित्यिक प्रतिभा को मुखरित किया। अपने प्रखर स्वाभिमान के कारण उन्होंने रेलवे की डेढ़ सौ रुपयों की नौकरी पर लात मारकर २५ रुपये माहवार पर 'सरस्वती' का सम्पादन-कार्य प्रारम्भ किया। यदि उनमे धन के प्रति अनासक्ति एवं स्वयं के प्रति इतना स्वाभिमान न होता, तो हिन्दी-साहित्य एक युगप्रवर्तक की सेवाओं से वंचित रह जाता। रेलवे की नौकरी करते हुए द्विवेदीजी भविष्य में ट्राफिक सुपरिण्टेण्डेण्ट अथवा किसी और भी बड़े पद पर जा सकते थे, इससे सरकार का रेलवे विभाग लाभान्वित होता। परन्तु, रेलवे की नौकरी छोड़कर उनके साहित्यिक क्षेत्र में चले आने से सारा हिन्दी-साहित्य, हिन्दीभाषी जनता एवं प्रकारान्तर से भारतवर्ष लाभान्वित हुआ । 'सरस्वती'-सम्पादन का पद ग्रहण करते ही उनके सामने यह स्थिति स्पष्ट हो गई थी कि हिन्दी-संसार विविध जटिलताओं एवं संकीर्णताओं से बँधा हुआ है।
इन परम्परित बन्धनों से हिन्दी-भाषा एवं साहित्य को मुक्ति दिलाने का व्रत उन्होंने नहीं लिया, अपितु उन्होंने मात्र सुधारात्मक नियम-पालन की नीति अपनाई । परम्परा के प्रति विद्रोह का कार्य हिन्दी में छायावाद-युग से प्रारम्भ हुआ। अपने युग में भाषा एवं साहित्य की अव्यवस्था को सुधार कर सँवारने का बीड़ा द्विवेदीजी ने अपनाया। उनकी इस नवीन दृष्टि ने प्राचीन परिपाटी के अन्धभक्तों को जगा दिया ओर वे सब दल बाँधकर इस महावीर के साथ जुझ पड़े। आचार्य द्विवेदीजी ने सबका सामना किया और हिन्दी-साहित्य की धारा को स्वच्छ कर मनोनुकूल दिशा प्रदान की। इस युगान्तरकारी कार्य में उनके चरित्र एवं स्वभावगत विशेषताओं ने उनकी विशेष सहायता की। न्यायप्रियता, सरलता, दृढता, विनम्रता, सादगी, नियमितता, सत्यनिष्ठा, धैर्य, व्यवस्थाप्रियता, गुणग्राहकता, निर्भयता, स्पष्टवादिता, आत्माभिमान, -, सग्रहवृत्ति, सहृदयता और श्रमशीलता को उनके चरित्र के प्रमुख गुणों के रूप में पहचाना जा सकता है। वे आजीवन इन्हीं चारित्रिक गुणों की रक्षा करते रहे । इन्हीं के कारण उन्हें विरोधों का सामना करना पड़ा, आर्थिक-दैहिकपारिवारिक कष्ट झेलने पड़े और इन्हीं की वजह से हिन्दी-साहित्याकाश में एक तपःपूत ध्रुवतारे-सा स्थान-गौरव भी प्राप्त है। द्विवेदीजी का सत्यपूत, प्रेमजनित एवं शिक्षाप्रद, कभी विनोदमय तो कभी गम्भीरता से ओतप्रोत ओजस्वी वार्तालाप सुनने का सौभाग्य जिन लोगों को प्राप्त हुआ है, वे उनकी सहृदयता, आत्मीयता और सरलता के कारण उनको कभी विस्मृत नहीं कर सकते। एक बार के दर्शन अथवा बातचीत से ही द्विवेदीजी ऐसा गहरा आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर लेते थे कि मिलनेवाला प्रभावित हुए बिना न रहता था। साथ ही, जिन लोगों ने उनके साथ कृत्रिमता,