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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १९७
'... कि कुछ दूर एक मकान की खिड़की की चौखट उभासित हो
जाती है, जग जाती है झिल्ली एक रगड़ती आवाज है, बगल के कमरे में दीवार-घड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता फुसफुसाते सुनता हूँ काल के कर्ण-रन्ध्र मेंटिक-टिक, टिक-टिक, टिक-टिक,
बहुत दूर पर एक बाजारू कुत्ता भौंकता है।' संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों, उसके अनेकानेक वचनों और श्लोकों तथा अँगरेजी के उद्धरणों के बहिष्कार के मूल में द्विवेदीजी का उत्कृष्ट हिन्दी-प्रेम दृष्टिगत होता है। सन् १९१५ ई० में ही उन्होंने यह घोषणा की थी कि 'आधुनिक हिन्दी-साहित्य के विशेष उत्कृष्ट ग्रन्थ न होने पर भी पढ़ने लायक कितने ही ग्रन्थ लिखे जा चुके है और लिखे जा रहे हैं। किन्तु, प्राचीन हिन्दी-साहित्य में अनेक अमूल्य रत्न विद्यमान हैं।'' आज से लगभग चौवन वर्ष पहले लिखे गये इस निबन्ध का स्वर मातृभाषा के प्रति उत्कट प्रेम का स्वर है । यदि द्विवेदीजी की दृष्टि वस्तुपरक होती और वे निष्पक्ष भाव से हिन्दीसाहित्य की उपलब्धियों पर दक्पात करते, तो उन्हें इस बात का पूरा-पूरा एहसान होता कि हिन्दी-साहित्य में उत्कृष्ट ग्रन्थों की संख्या उन दिनों उँगली पर गिनी जा सकती थी और ऐसे ग्रन्थों की संख्या अत्यल्प थी, जिन्हें पठनीय कहा जा सकता था। प्राचीन उपलब्धियों का गुणगान करना वर्तमान अभावों को छिपाने का असफल प्रयास होता है।
१. नलिनविलोचन शर्मा, केसरीकुमार, नरेश (प्रपद्य-द्वादश-सूत्री तथा पस्पशा
संवलित) नकेन के प्रपद्य । २. महावीरप्रसाद द्विवेदी : विचार-विमर्श, पृ०४८ ।