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१५६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
विवेचन-शैली ग्रहण की थी और द्विवेदीजी के आविर्भाव के पूर्व तक हिन्दी-आलोचना का सिद्धान्त-निरूपण रीतिकालीन आदर्शो पर अवलम्बित था। द्विवेदी जी ने हिन्दी की सैद्धान्तिक समीक्षा का सीधा नाता संस्कृत के साहित्यशास्त्र के साथ जोड़ दिया। इसी कारण श्रीशिवनाथ जैसे विचारकों को ऐसा लगा है :
"द्विवेदी-युग में जो सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक समीक्षा का साहित्य प्राप्त है, उसको देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें हिन्दी-समीक्षा का मान वही है, जो संस्कृतसमीक्षा का मान था। उसमें सस्कृत के समीक्षकों की उद्धरणी ही बार-बार मिलती है।"१ __संस्कृत-काव्यशास्त्र को सामने रख कर अपने युग की साहित्य-सृष्टि के जिन सिद्धान्तों की रचना द्विवेदीजी ने की, उसमें जनहित एवं लोकरुचि का सर्वाधिक ध्यान उन्होंने रखा । समीक्षा के जो उद्देश्य निश्चित हुए, उनमें साहित्य की उन्नति, साहित्य को साधारण जनता तक पहुँचाना तथा साहित्य को रमणीय शिक्षाओं द्वारा जीवनोपयोगी बनाने की दिशा में प्रयत्नशील करना इत्यादि पर विशेष बल दिया गया। नीति, सुरुचि, लोकमंगल एवं आदर्शवाद को इसी कारण द्विवेदीजी की आलोचना के प्रमुख स्वरों के रूप में स्वीकार किया जाता है। डॉ० मक्खनलाल शर्मा ने लिखा है : ___ "द्विवेदीजी की साहित्य-कसौटी जनमत पर आधारित होने के कारण व्यक्तिवादी समीक्षा की अपेक्षा सैद्धान्तिक समीक्षा के समाजवादी रूप को ही श्रेष्ठ मानती थी।"२
द्विवेदीजी की आलोचना में नैतिकता एवं सामाजिक उपयोगिता का कितता स्थान है, इसका अनुमान उनकी काव्य, कवि, साहित्य और नाटक-सम्बन्धी मान्यताओं से लगाया जा सकता है। द्विवेदीजी की सिद्धान्तमूलक आलोचना उनके आचार्यत्व को प्रमाणित करती है। इस क्रम में उन्होंने सिद्धान्तों को साध्य और लक्ष्य तथा रचनाओं को साधन न मानकर रचनाओं को ही साध्य एवं सिद्धान्तों को साधन माना है। सत्यं, शिवं और सुन्दरम् पर आधृत उनकी सैद्धान्तिक समीक्षा का यही सौन्दर्य एवं आदर्श कहा जा सकता है। ___ अपनी परिचयात्मक एवं सिद्धान्तमूलक दोनों ही आलोचनाओं में द्विवेदीजी ने अपनी प्रतिभा, पाण्डित्य एवं कौशल का परिचय दिया है। समालोचक यदि किसी पत्रिका का सम्पादक भी रहता है, तो उसे समीक्षा के लिए एक विस्तृत क्षेत्रफल मिल जाता है । द्विवेदीजी को यह सौभाग्य प्राप्त था। 'सरस्वती' के पन्नों पर उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा के दर्शन प्रतिमास होते थे । वे अपनी पत्रिका में अपनी आलोचना
१. श्रीशिवनाथ : 'आधुनिक आलोचना का उदय और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' ___ 'आलोचना', आलोचना-विशेषांक, अक्टूबर, १९५३ ई०, पृ० ८६ । २. डॉ० मक्खनलाल शर्मा : 'द्विवेदीयुगीन समीक्षा', पण्डित जगन्नाथ तिवारी
अभिनन्दन-ग्रन्थ, पृ० ४०२ ।