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गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १५५
टीका-प्रणाली को ही परिष्कृत किया और इसी प्रसंग में उन्होंने केवल अर्थ बतलाकर, गुण-दोष दिखाकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री नही समझी। इन्होंने जिन कृतियों की आलोचनाएँ लिखी है, उनमें रचना के गुणदोष-विवेचन की अपेक्षा परिचय देने की प्रवृत्ति अधिक परिलक्षित होती है। अपनी यह नीति उन्होने कालिदास, श्रीहर्ष जैसे प्राचीन कवियों तथा अपने समसामयिक साहित्यकारों पर एक साथ लागू की थी। द्विवेदीजी का लक्ष्य इन ग्रन्थों का परिचय हिन्दीभाषी जनता को देकर, उनके गुण-दोष की चर्चा कर, उनके सुरुचिपूर्ण सौन्दर्य का दिग्दर्शन कराना भी था। इस प्रकार की परिचयात्मक आलोचना के अन्तर्गत द्विवेदीजी द्वारा लिखित 'नैषधचरितचर्चा', 'विक्रमांकदेवचरितचर्चा' और 'हिन्दी-कालिदास की समालोचना' जैसे सभी पुस्तकों तथा 'सरस्वती' के 'पुस्तक-परिचय' स्तम्भ मे की गई तत्कालीन साहित्य की समीक्षाओं की गणना हो सकती है। परिचयात्मक आलोचना में अधिकाशतः गूढ चिन्तन एवं गाम्भीर्यपूर्ण विश्लेषण के लिए स्थान नही होता है। द्विवेदीजी ने भी अपनी परिचयात्मक आलोचनाओं के लिए सरल भाषा एवं आदेशात्मक, व्यंग्यात्मक अथवा निर्णयात्मक शैली का ही विनियोग प्रस्तुत किया है । आलोचना की यह परिचयात्मक शैली ही तयुगीन परिवेश में सर्वाधिक उपयुक्त थी। डॉ० राजकिशोर कक्कड़ ने भी लिखा है: ____ "उन दिनों आलोचक का कार्य केवल आलोचना ही नहीं, वरन् ग्रन्थों का परिचय देना भी था । यह कार्य हिन्दी की उस समय की स्थिति के अनुकूल भी था । द्विवेदीजी की परिचयात्मक आलोचना-शैली हिन्दी के उस नवीन युग के प्रवर्तन के समय थी और इसकी विशेषताओं में वे सभी गुण थे, जो इस प्रकार की स्थिति तथा साहित्य के स्वरूप के उपयुक्त होते हैं।"१ ___ इस युगानुकूल परिचयात्मक आलोचना के साथ ही द्विवेदीजी की आलोचनाओं का एक अन्य वस्तुपरक उन्मेष उनकी नितान-- आलोचना मे दीख पड़ती है। इस आलोचना के दर्शन उनकी 'रसज्ञरंजन', 'समालोचना-समुच्चय', 'नाट्यशास्त्र' प्रभृति पुस्तकों में होते हैं । साहित्य तथा उमके विभिन्न रूपों-अंगों की शास्त्रीय चर्चा द्विवेदीजी ने अपनी सिद्धान्तमूलक आलोचना में की है। इस प्रसंग में उन्होंने अपने विचारों को संस्कृत, उर्दू, अंगरेजी और मराठी के काव्यशास्त्र से भली भाँति समृद्ध किया है और युग की आवश्यकताओ के अनुकूल यथास्थान मौलिक सिद्धान्तो का प्रस्तुतीकरण भी किया है । इस दिशा मे उनकी दृष्टि अधिकांशतः संस्कृत के समीक्षाशास्त्र पर टिकी रही है। हिन्दी के रीतिकालीन आचार्यो ने संस्कृत की सैद्धान्तिक १. डॉ० राजकिशोर कक्कड़ : 'आधुनिक हिन्दी-साहित्य में आलोचना का
विकास', पृ० ५८४-५८५।