________________
गद्यशैली : निबन्ध एवं आलोचना [ १३१
प्रवाहित करने की दिशा में द्विवेदीजी को सार्वजनिक गद्यशैली ही सर्वाधिक उपयुक्त दीख पड़ी। उनकी इस शैली ने हिन्दी को उन्नति की वर्तमान अवस्था तक पहुँचने में सहायता की है। द्विवेदीजी की सार्वजनिक सुबोध गद्यशैली का हिन्दी-जगत् सर्वदा ऋणी रहेगा। निबन्ध-कला :
इतना तो सभी जानते हैं कि निबन्ध एक गद्य-रचना है, जिसमें किसी विषय या विषयांश पर विचार-विमर्श रहता है । निबन्ध के वास्तविक स्वरूप को समझने के लिए उसके जन्मदाता मौतेन के कथन को ध्यान में रखना चाहिए : 'इट इज माइसेल्फ आइ पारट्रे'। अपने निबन्धों को उसने काव्य के समान अभिव्यक्ति का माध्यम स्वीकार किया है। सामान्यत:, "निबन्ध शब्द का प्रयोग उस लघु या मर्यादित दीर्घ आकार की गद्यकृति के लिए होता है, जिसमें अनवस्थिति के साथ-ही-साथ निबन्धकार के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति उसकी निजी भाषाशैली में होती है' कहकर हडसन ने एवं 'आधुनिक पाश्चात्त्य लक्षणों के अनुसार निबन्ध उसी को कहना चाहिए, जिसमें व्यक्तित्व अथवा व्यक्तिगत विशेषता हो'१ कहकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी निवन्धों में व्यक्तित्व की महत्ता को स्वीकार किया है । बाबू गुलाबराय के शब्दों में : ___ "निबन्ध उस गद्य-रचना को कहते हैं, जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का वर्णन या प्रतिपादन, एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव और सजीवता तथा आवश्यक संगति और सम्बद्धता के साथ किया गया हो।"२ स्पष्ट है कि निबन्धकार में भी निबन्ध के इन लक्षणों के अनुरूप स्वच्छन्दता, सरलता, आडम्बरहीनता तथा घनिष्ठता और आत्मीयता के साथ उसके वैयक्तिक आत्मनिष्ठ दृष्टिकोण के प्रकाशन की क्षमता होनी चाहिए। इस भॉति निबन्धकार समाज का भाष्यकार और आलोचक भी होता है, अतएव समाजिक परिवेश का जैसा स्पष्ट प्रभाव निबन्धो पर दीख पड़ता है, वैसा अन्य विधाओं पर । नहीं इसका कारण यही होता है कि निबन्धकार से पाठक का सीधा सम्बन्ध रहता है। जो निबन्धकार पत्रिकाओं के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करते है, पाठको के साथ उनका और भी अधिक प्रत्यक्ष तादात्म्य रहता है। निबन्ध व्यक्ति की मानसिक चेतना और भावात्मक अनुभूति का लिखित रूप होने के कारण अपने अनेक रूपों में हमारे सामने लाया जाता है और इस क्रम मे वह केवल तथ्यों का आकलन नही, अपितु सरल शैली में अभिव्यक्त लेखक का निजी दृष्टिकोण है। इसी तथ्य को ध्यान मे रखकर डॉ० कन्हैयालाल सहल ने निबन्ध को परिभाषित करते हुए लिखा है :
१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : 'हिन्दी-साहित्य का इतिहास', पृ० ५५९ । २. श्रीगुलाबराय : 'काव्य के रूप', पृ० २२७ ।