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१३० ] आचार्य महाबीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
में किसी मार्मिक अवसर के आते ही द्विवेदीजी की भावुकता इस शैली के रूप में मुखर हो गई है ।
परन्तु, गम्भीर विषयों के विवेचन-क्रम में द्विवेदीजी ने जिस शैली का विन्यास किया है, उसमे आलोचनात्मक या व्यंग्यात्मक शैली का चुटीलापन एवं शिक्षाभाव नही है तथा भावात्मक शैली जैसी भावुकता के भी दर्शन उसमें नही होते । सरल वाक्य, सुबोध शब्द एवं प्रतिपादन की स्पष्ट प्रणाली के होते दुए भी कई अनेक गद्य-ग्रन्थ एवं रचनाओं से यह ध्वनि निकलती है कि वे गम्भीर विषय की विवेचना से सम्पन्न है । द्विवेदीजी की इस गद्यशैली को हम विवेचनात्मक या वर्णनात्मक या गवेषणात्मक शैली कह सकते हैं । इसे ही कतिपय विद्वानों ने विचारात्मक शैली की सज्ञा भी दी है । ऐसी विचारात्मक शैली का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा ।
"कवि को देश और काल की अवस्था का पूरा ज्ञान होना चाहिए। वह मनोविज्ञनवेत्ता हो और मनुष्य के चरित्र का उसने अच्छी तरह अध्ययन भी किया हो । सबसे अच्छी कविता वह है, जिसमें जीवन की सार्थकता के उपाय और उसके उद्देश्य मनोहारणी भाषा बतलाये जाते हैं, मनुष्य को अच्छी शिक्षा दी जाती है, उसे उन्नति का मार्ग दिखाया जाता है ।" १
इस प्रकार, हम देखते हैं कि द्विवेदीजी की गद्यकृतियों में शैलियों के अनेक भेदप्रभेद मिलते है । इनमें आलोचनात्मक, व्यंग्यात्मक विचारात्मक, भावात्मक, वर्णनात्मक, विवेचनात्मक इत्यादि शैलियों की चर्चा अनेक विद्वानों ने की है । द्विवेदीजी की गद्य-रचनाओं से अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने उनकी प्रश्नवाचक, संलापात्मक, वक्तृतात्मक, मूर्त्तिमत्तात्मक, व्यासात्मक इत्यादि अनेक शैलियों का सन्धान किया है । परन्तु, जो शैली उनकी प्रतिनिधि शैली दीख पड़ती है, उसका महत्त्व गद्य रचना की दृष्टि से है और वह शैली है - सार्वजनिक गद्यशैली । सरल, सरस एवं बोधगम्य भाषा में अपनी पत्रिका 'सरस्वती' के पाठकों के मनोनुकूल सामग्री प्रस्तुत करने के क्रम में द्विवेदीजी ने प्रधानतः इस सार्वजनिक शैली का ही परिपालन किया है । डॉ० जेकब पी० जॉर्ज ने लिखा है :
“सन् १९०३ से १९२१ ई० के अठारह वर्षो के अथक परिश्रम के फलस्वरूप हिन्दी के सार्वजनिक गद्य को एक परिनिष्ठित रूप देने में, उसमें उचित व्यवस्था जाने में द्विवेदीजी नितान्त सफल हुए । २
पत्रकारिता का अप्रतिम आदर्श उपस्थित करने, हिन्दी-भाषा को जन-जन में प्रचारित करने, हिन्दी को विविध विषयों से सम्पन्न करने एवं सरस-सरल शैली को
१. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'विचार-विमर्श, पृ० १ ।
२. डॉ० जेकब पी० जॉर्ज : 'आधुनिक हिन्दी गद्य और गद्यकार', पृ० १५५ ।