________________
१०८ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
स्वरों के प्रयोग में द्विवेदीजी ने भाषा की अशुद्धता की जैसी भरमार अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में प्रस्तुत की है, व्यंजनों की दिशा में भी उसी कोटि की त्रुटियों को वे प्रस्तुत करते रहे । ट, ठ, ड, ढ आदि वर्णो के प्रयोग में ऐसी अशुद्धियाँ अधिक मिलती है : ‘चेष्ठा’१ (शुद्ध रूप ‘चेष्टा')'; 'विडम्बना ' २ (शुद्ध रूप 'विडम्बना '), 'बडे-बडे ' 3 (शुद्ध रूप 'बड़े-बड़े'); 'चढाई' ४ ( शुद्ध रूप ' चढाई' ) ।
इसी तरस 'थी' के स्थान पर 'ई' और 'या' के स्थान पर 'आ' का अशुद्ध प्रयोग भी उन्होंने किया है : 'निदई' " ( शुद्ध रूप 'निर्दयी'), 'दुखदाई ६ ( शुद्ध रूप 'दुःखदायी ' ) 'दिआ (शुद्ध रूप 'दिया') ।
'र' और रेफ के प्रयोग में भी स्वच्छन्दता दीखती है : 'निरमाण ८ ( शुद्ध रूप 'निर्माण'), 'पूरण'' / शुद्ध रूप 'पूर्ण' ', ' मनोर्थ' १० (शुद्ध रूप 'मनोरथ'), 'अन्तकर्ण' ११ ( शुद्ध रूप 'अन्तःकरण' । )
स्वरों और व्यंजनों के ऐसे चिन्त्य प्रयोग उस समय के हिन्दी - लेखन के लिए असामान्य नहीं थे । ऐसी भूलें उस समय सभी छोटे-बड़े लेखकों की रचनाओं में रहती थीं । व्याकरण सम्बन्धी अराजकता भी उस युग मे सर्वत्र व्याप्त थी । व्याकरण की दृष्टि से कई अशुद्ध प्रयोग द्विवेदीजी की रचनाओं में मिलते है : 'चातुर्यता' १२ ( शुद्ध रूप 'चातुर्य'); 'सौन्दर्यता ' ' 3 ( शुद्ध रूप 'सौन्दर्य'); ' अपना हित साधन में ' १४ ( शुद्ध रूप 'अपने' हितसाधन में) 'चेष्टा न करना चहिए' १५ ( शुद्ध रूप 'चेष्टा न करनी चाहिए' )
१. बेकन - विचार - रत्नावली, पृ० ३१ ।
२. भामिनीविलास, पृ० १२ ।
३. उपरिवत्, पृ० ११।
४. उपरिवत्, पृ० ३७ ।
५. उपरिवत्, पृ० ३४ ।
६. उपरिवत्, पृ० १२१।
७. 'हिन्दी - कालिदास की समालोचना', पृ० १०७ ।
८ 'भामिनी विलास', पृ० १ ।
९. उपरिवत्, पृ० २२ ।
१०. उपरिवत्, पृ० १४० ।
११. उपरिवत्, पृ० १५९ ।
१२. 'भामिनीविलास', पृ० २३ ।
१३. 'हिन्दी - शिक्षावली, तृतीय भाग की समालोचना', पृ० ६९ ।
१४. 'बेकन - विचार - रत्नावली', पृ० २७ ।
१५. आ० म० प्र० द्विवेदी : 'स्वाधीनता', भूमिका, पृ० ११ ।