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________________ सम्पादन-कला एवं भाषा-सुधार [ १०७. 'इ' अथवा 'ई' के प्रयोग की गलतियां भी हुई है : 'हरिणीयों १ (शुद्ध रूप 'हरिणियों) 'केली'२ (शुद्ध रूप 'केलि'); 'कीशोरी'3 (शुद्ध रूप 'किशोरी'); 'ध्वनी'४ (शुद्ध रूप 'ध्वनि'); 'ज्योहि'५ (शुद्ध रूप 'ज्योही') ।। इसी तरह 'उ' एव 'ऊ' के प्रयोग में भी त्रुटियाँ द्विवेदीजी की प्रारम्भिक रचनाओं मे मिलती हैं : 'तूझे' ६ (शुद्ध रूप 'तुझे'); 'कारूणिक' (शुद्ध रूप 'कारुणिक'); 'उपर' (शुद्ध रूप 'ऊपर'); 'प्रतिकुल' ९ (शुद्ध रूप 'प्रतिकूल')। करे, रहे, जानो, वीरो, तो, के, जिन्हें, से आदि के स्थान पर करै, रहै, जानौ, वीरौं, तौ, के, जिन्है, सै जैसे प्रयोग व्रजभाषा के प्रभाववश करने की प्रवृत्ति उन दिनों सामान्य थी। द्विवेदीजी भी ऐसे प्रयोगों से बचे हुए नहीं थे। साथ ही, उन्होंने 'ए' की जगह 'या' तथा 'ओ' की जगह 'वो' का प्रयोग भी गलत किया है : 'यकदम'१० (शुद्ध रूप 'एकदम'); 'यम० ए' १ (शुद्ध रूप 'एम० ए०'); 'लाव'१२ (शुद्ध रूप 'लाओ')। ___ गद्यलेखन के इस आरम्भिक काल में अनुम्वारों के प्रति द्विवेदीजी का विशेष मोह परिलक्षित होता है। कई अनुनासिक प्रयोग उनकी रचनाओं में मिलते है : 'करनेवाला'१३ (शुद्ध रूप 'करनेवाला'); 'कालिमा १४ (शुद्ध रूप ‘कालिमा'); 'पूछ-तांछ'१५ (शुद्ध रूप 'पूछताछ') आदि । १. म०प्र० द्वि० : भामिनीविलास, पृ० १७, ३२ । २. उपरिवत्, पृ० २५ । ३. उपरिवत्, पृ० २८ । ४. उपरिवत्, पृ० ८२। ५. उपरिवत, पृ० १०९ । ६. उपरिवत्, पृ० २९। ७. उपरिवत्, पृ० १६ । ८. आचार्य गहावीरप्रसाद द्विवेदी : 'हिन्दी-शिक्षावली, तृतीय भाग की आलोचना' पृ० ३३। ९. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'भामिनीविलास', पृ० २६। १० आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'हिन्दी-शिक्षावली, तृतीय भाग की समालोचना, पृ० ४५। ११. उपरिवत्, 'बेकन-विचार-रत्नावली', पृ० १। १२. उपरिवत्, पृ० २० । १३. उपरिवत्, ‘भामिनीविलास', पृ० ३ । १४. उपरिवत्, 'बेकन-विचार-रत्नावली', पृ० ३४ । १५. उपरिवत्, पृ० २५।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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