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१०६ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व
'आधुनिक गद्य और पद्य की भाषा, खड़ी बोली के परिमार्जन, संस्कार और परिष्कार का इतिहास पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी की सूक्ष्म दृष्टि, प्रखर पाण्डित्य और कर्मठता का इतिहास है।'१
स्पष्ट ही, द्विवेदीजी ने भाषा और व्याकरण पर सर्वाधिक ध्यान देकर हिन्दी-जगत् का मार्ग-निर्देशन किया। वे भाषा-संस्कार के लिए अपेक्षित समस्त विशेषताओं से विभूषित थे । भाषागत विवादों और समस्याओं को हल करने के लिए जिस सत्यनिष्ठा, अनथक परिश्रम, अडिग आत्मविश्वास और घोर सक्रियता, असीम सहनशीलता, निश्चित नीति और प्रगतिशील भाषादर्श की आवश्यकता होती है, उन सबका समन्वय द्विवेदीजी के व्यक्तित्व मे था। द्विवेदीजी ने अपने अदम्य व्यक्तित्व और भगीरथ प्रयत्न से भाषा की अनस्थिरता दूर करके उसे स्थिर तथा प्रतिष्ठित रूप दिया, व्याकरण की व्यवस्था दी और साहित्य के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। श्रीशान्तिप्रिय द्विवेदी के शब्दों में :
'द्विवेदीजी ने इस बात की चेष्टा की है कि भाषा अप-टू-डेट और सीधी-सादी हो और सब तरह के भावों और विचारों को प्रकट करने में समर्थ हो। इसी नीति को सामने रखकर उन्होंने हिन्दी के गद्य-पद्य को अपने मस्तिष्क के साँचे में ढालकर सुन्दर
और सुडौल बना दिया। यद्यपि उस समय उनकी नीति और शैली के सम्बन्ध में बहुत वाद-विवाद हुए थे, तथापि अन्त में द्विवेदीजी की शैली लोकप्रिय हो गई । यह उनके आत्मबल का सुफल है । आज हम अपनी पुस्तकों में हिन्दी की जैसी भाषा पढ़ते हैं, वह द्विवेदीजी के श्रमबिन्दुओं से सिंचित होकर खिली और फली-फूली । २
इस प्रसग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि द्विवेदीजी ने दूसरों की भाषा-सुधार करने के पहले स्वयं अपनी भाषा का सुधार किया । उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में तत्कालीन साहित्यसेवियो की कृतियों में मिलनेवाली अधिकांश भाषागत त्रुटियाँ प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। 'अमृतलहरी', 'भामिनीविलाप्त', 'वेवन-विचार-रत्नावली' आदि में लेखन-त्रुटियों एवं व्याकरण की भूलें इस सीमा तक है कि वे भाषा की दृष्टि से विचारणीय हो गई है। स्वयं द्विवेदीजी ने ही 'अ' के स्थान पर 'इ' और 'उ' तथा 'आ' के स्थान पर 'वा' का गलत प्रयोग कई बार किया है। यथा : 'विकालत'3 (शुद्ध रूप वकालत'); 'समुझा'४ (शुद्ध रूप 'समझा'); 'हुवा'" (शुद्ध रूप 'हुआ')। १. श्रीसुरेन्द्रनाथ सिंह : 'भाषासुधारक आचार्य द्विवेदी', 'भाषा' : द्विवेदी-स्मृति
अंक, पृ० १०५। २. श्रीशान्तिप्रिय द्विवेदी : 'हमारे साहित्य-निर्माता', पृ० ४ । ३. श्रीमहावीर प्रसाद द्विवेदी : 'बेकन-विचार-रत्नावली', पृ० १। ४. उपरिवत्, 'भामिनीविलास', पृ० २। ५. उपरिवत्, पृ० ८८ ।