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सम्पादन-कला एवं भाषा-सुधार [ १०९
('हमारा मृत्यु'' (शुद्ध रूप 'हमारी मृत्यु)'; 'तेरा पराजय'२ (शुद्ध रूप 'तेरी पराजय'); 'के किरण'3 (शुद्ध रूप 'की किरण'); 'इस काम को सम्पादन'४ (शुद्ध रूप 'इस काम का सम्पादन'; 'सन्मान'५ (शुद्ध रूप 'सम्मान' , 'इन्डियन'६ (शुद्ध रूप' इंडियन' या 'इण्डियन' ; 'दाम्पत्य' (शुद्ध रूप 'दम्पति'); 'हस्ताक्षेप'८ (शुद्ध रूप 'हस्तक्षेप'; 'ऐक्यता' (शुद्ध रूप 'एकता' या 'ऐक्य')। "उत्सव मनाए जाने को तैयार'१० (शुद्ध रूप 'उत्सव मनाने के लिए तैयार') 'उतकर्षित'११ (शुद्ध रूप 'उत्कर्षित') 'उँचा उड्डान भरते है' १२ (शुद्ध रूप 'ऊँची उड़ान भरते हैं'); 'उपमा देवे योग्य'१3 (शुद्ध रूप 'उपमा देने योग्य'); 'दो कार्य भए'१४ । शुद्ध रूप 'दो कार्य हुए'); 'आख्यायिकों'१५ (शुद्ध रूप 'आख्यायिकाओं') ।
इसी प्रकार के अन्यान्य लिंग, सन्धि, प्रत्यय-प्रयोग, वाक्य-विन्यास एवं क्रियागत दोषो से द्विवेदीजी की सभी प्रारम्भिक रचनाएँ भरी पड़ी है। तत्कालीन हिन्दीलेखन की स्थिति का अनुमान इन त्रुटियों पर दृष्टिपात कर सहज ही लगाया जा सकता है। ये दोष उस समय के सभी साहित्यसेवियों की रचनाओं में बहुलता के साथ विद्यमान थे। परन्तु, द्विवेदीजी ने निजी साधना एवं परिश्रम द्वारा भाषा पर अधिकार प्राप्त किया। उनकी बौद्धिक क्षमता के विकास के साथ ही उनकी भाषा भी प्रांजल, परिष्कृत और व्याकरणसम्मत होती गई। आचार्य द्विवेदीजी की महत्ता केवल इस बात में नहीं है कि उन्होंने स्वयं व्याकरण-सम्मत तथा शुद्ध भाषा का प्रयोग किया,
१. 'बेकन-विचार-रत्नावली', पृ० १३ । २. आ० म०प्र० द्विवेदी : 'वेणीसंहार', पृ० ७ । ३. आ० म०प्र० द्विवेदी : कुमारसम्भव, पृ०४८ । ४. 'बेकन-विचार-रत्नावली', पृ० ७ । ५. उपरिवत्, पृ० ११ । ६. उपरिवत्, पृ० ६७ । ७ 'भामिनी विलास', पृ० ८३ । ८. उपरिवत्, पृ० ४६ । ९. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'वेणीसंहार', पृ० ८८ । १०. 'हिन्दी-शिक्षावली, तृतीय भाग की समालोचना', पृ० ७८ । ११. 'बेकन-विचार- रत्नावली', पृ० ४३ । १२. उपरिवत् । १३. 'भामिनीविलास', पृ० १५ । १४. उपरिवत्, पृ० ११७ । १५. उपरिवत्, पृ० ५।