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१०४/आधुनिक कहानी का परिपार्श्व
स्पष्ट करना चाहूँगा । स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् भारतवासियों की सारी आशाएँ ध्वस्त हो गईं। उन्होंने पूरे स्वाधीनता-संग्राम के दौर में यह कल्पना कर रखी थी कि दासता की श्रृंखलाओं के समाप्त होने और देश में स्त्रशासन स्थापित होने के पश्चात् यह शोषण, असमानता, आर्थिक परतंत्रता और निर्धनता समाप्त होगी और एक नया युग प्रारम्भ होगा, "जिसमें वे स्वयं भागीदार होंगे। पर स्वतन्त्रता मिलने के पश्चात् ऐसा कुछ नहीं हुआ। दासता की शृंखलाएँ टूटी, विदेशी लोग वापस गए और देश-भक्त नेताओं ने शासन की बागडोर सँमाली-मात्र इस परिवर्तन के और कई परिवर्तन नहीं हुआ। पहले विदेशी लोग नोंच-खसोट करते थे और लूट-पाट करते थे, अब नेता, उन्हें आगे बढ़ाने वाले तथा राजनीतिक पार्टियों को लाखों का चन्दा देने वाले पूंजीपति लोग नोंच-खसोट और लूट-पाट करने लगे, जिसमें क्लर्क से लेकर एंजीनियर, ग्रोवरसीयर, बाँध बनाने वाले, सहकारिता चलाने वाले आदि दूसरे अधिकार-प्राप्त लोग भी अपनी-अपनी सीमाओं में सम्मिलित हो गए। बेरोजगारी, वैषम्य, निर्धनता तथा दयनीयता दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई, जिसे भाषणों, लम्बे-लम्बे 'दावों, कागज़ी आँकड़ों तथा टैक्सों के भार से सांत्वना देने की चेष्टा की गई। इसके फलस्वरूप नई पीढ़ी में कुण्ठा, वर्जना, घुटन, पीड़ा-निराशा तथा एक विचित्र सी आशंका का जन्म होना स्वाभाविक ही नहीं, विषम परिस्थितियों की अनिवार्यता भी थी। यह एक नई संक्रान्ति थी, जिससे सब स्तब्ध थे और दिशाहारा की भाँति भटक रहे थे और उन्हें कोई राह सुझाई नहीं पड़ रही थी। स्वातंत्र्योत्तर काल में हमारे अधिकांश कहानीकार इसी नई संक्रान्ति की देन हैं और इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस संक्रान्ति को उन्होंने पूरी यथार्थता से अपनी कहानियों में उजागर किया है। निर्धनता का अभिशाप मोहन राकेश की ‘मंदी', दिशा पाने की आकुलता कमलेश्वर की 'खोयी हुई दिशाएँ,' धूसखोरी और भ्रष्टाचार श्रीमती विजय चौहान की 'चैनल' तथा मन्नू भण्डारी की 'इन्कमटैक्स कर और नींद', विपन्नता