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मूल्य - मर्यादा और प्रतिमान
इस समय मेरे सामने नई पीढ़ी के कहानीकारों की कई कहानियाँ हैं, जिनमें राजेन्द्र यादव की 'प्रतीक्षा', श्रीकान्त वर्मा की 'टोर्सो' और 'शव यात्रा', मार्कण्डेय की 'माई' और कुछ कहानियाँ रमेश बक्षी की, निर्मल वर्मा की 'अन्तर', मोहन राकेश की 'जख्म' और 'ग्लास टैंक', कमलेश्वर की 'पीला गुलाब' आदि कहानियाँ भी हैं । इन कहानियों को पढ़ने के बाद मैं श्री मोहन राकेश का यह वक्तव्य पढ़ता हूँ कि नई कहानी ने मूल्यों की मर्यादा पहचानी है और मनुष्य को उसके यथार्थ परिवेश में देखते हुए नए प्रतिमान स्थापित करने की चेष्टा की है । इन कहानियों को पढ़कर यह कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होता है । गत दस वर्षों में सेक्स के सम्बन्ध में हमारे ये नए कहानीकार सीमा का पर्याप्त अंशों में अतिक्रमण कर काफ़ी आगे बढ़ गए हैं । स्त्री-पुरुष के सेक्स सम्बन्धों, तनाव एवं कटुता, मानसिक असंतोष आदि को लेकर तो पहले भी बहुत कहानियाँ लिखी गई थीं । जैनेन्द्र कुमार और 'अज्ञेय' की कहानियाँ इस सम्बन्ध में बड़ी सूक्ष्मता से प्रस्तुत की गई थीं । १९५० के पश्चात् स्वातंत्र्योत्तर काल में भी कई कहानीकारों ने उसी परंपरा में कई अच्छी कहानियाँ लिखी थीं, जिनमें राजेन्द्र यादव की 'जहाँ लक्ष्मी क़ैद है', मोहन राकेश की 'मिस पाल', नरेश मेहता की 'चाँदनी', अमरकान्त की 'एक असमर्थ हिलता हाथ', निर्मल वर्मा की 'लवर्स' आदि अनेक कहानियां हैं, पर उसके बाद ही सेक्स - प्रधान कहानियों का ऐसा दौर प्राया जिससे ऐसा आभास होने लगा कि शायद