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२८ / श्राधुनिक कहानी का परिपार्श्व
निन्दनीय बताते थे, और कहानीकारों को 'डाक्टरों' की संज्ञा देकर उनके अध्ययन कक्ष को ऑपरेशन थिएटर की संज्ञा देते थे और उनके पात्रों को अस्वस्थ एवं विकारग्रस्त घोषित करते थे । मोहन राकेश की 'कई एक अकेले', 'ज़ख़्म' तथा 'सेफ्टीपिन', नरेश मेहता की 'अनबीता व्यतीत', 'एक समर्पित महिला' तथा 'एक इतिश्री', राजेन्द्र यादव की 'एक कटी हुई कहानी', 'किनारे-से-किनारे तक' तथा 'छोटे-छोटे ताजमहल', कमलेश्वर की 'तलाश', 'ऊपर उठता हुआ मकान', 'माँस का दरिया', निर्मल वर्मा की 'अन्तर', 'दहलीज़', 'पराए शहर में', श्रीकान्त वर्मा की 'शवयात्रा', 'टोर्सो', मन्नू भण्डारी की 'तीसरा आदमी', उषा प्रियंवदा की 'मछलियाँ' आदि कहानियाँ इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं । जिस प्रकार इन कहानीकारों ने १९५० में जैनेन्द्र- अज्ञय' - परम्परा के प्रति 'विद्रोह' करके सामाजिक यथार्थ की धारा को नए रूप में विकसित किया, उसी प्रकार १९६० के बाद सर्वथा नए कहानीकारों की एक पंक्ति बड़ी तत्परता से 'विद्रोह' करती दृष्टिगोचर होती है और ग्राज की कहानी को पुनः ग्रात्म-परकता से हटा कर जीवन से सम्बद्ध करने की दिशा में प्रयत्नशील लक्षित होती है । सुरेश सिनहा की 'मृत्यु और ..... 'कई कुहरे', 'तट से छुटे हुए, रवीन्द्र कालिया की बड़े शहर का आदमी', 'इतवार का एक दिन', ज्ञानरंजन की 'फेन्स के इधर और उधर', 'पिता', विनीता पल्लवी की 'रात और दिन', 'साथ होते हुए', सुधा अरोड़ा की 'एक अविवाहित पृष्ठ', 'एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत' आदि कहानियों को ऊपर उल्लिखित कहानियों के कन्ट्रास्ट में देखा जा सकता है— जहाँ तक जीवन से सम्बन्धित होने का प्रश्न है । उन्होंने कला का आदर्श पा लिया है, यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु उनके क़दम उस ओर बढ़ रहे हैं, यह देखकर हिन्दी कहानी - साहित्य के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत किया जा सकता है । ये कहानियाँ पढ़कर एक निष्कर्ष यह अवश्य निकाला जा सकता है कि लेखक स्वयं मध्य वर्ग के हैं और उन्होंने