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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ६३
प्रयत्नशील रहते हैं । फलतः वह दिग्भ्रमित है । स्वयं अपने देश में 'रामराज्य' का स्वप्न देखने वाले हताश हैं और देश की उत्तरी सीमा, अलंघ्य हिमालय, विदेशी श्राततायियों द्वारा आक्रांत है । विदेशी आक्रमण से न केवल हमारी नवार्जित स्वतन्त्रता, वरन् हमारी दीर्घकालीन जीवन-पद्धति भी ख़तरे में पड़ गई है । हमारे सामाजिक जीवन में एक और प्रगति की आड़ में यूरोप और अमरीका का भद्दा अनुकरण है, तो दूसरी ओर आर्थिक विषमता का घोर सन्ताप । अँगरेजी साम्राज्यशाही का अन्त करन लेने के बाद हम भारतवासी आत्म मंथन और आत्म-विशलेषण द्वारा अपना जीवन-क्रम स्वयं निर्धारित करने चले थे । किन्तु जीवन की वर्तमान देशी-विदेशी परिस्थिति में क्या वह संभव है ? हम सब प्रकार के भौतिक और आध्यात्मिक प्रभावों से मुक्त होना चाहते हैं, व्यक्ति को पूर्ण बनाना चाहते हैं, अन्तर और बाह्य में सन्तुलन स्थापित करना चाहते हैं और कोई भी व्यक्ति जो लेखक या कलाकार होने का दावा करता है, उसे इन बातों से अधिक प्रिय और हो ही क्या सकता है । वह तो सभी प्रकार की मुक्तियों का दाता है । शर्त यही है कि उसमें समझ और अन्तर्दृष्टि होनी चाहिए । उसमें 'ह्यूमैन एंजीनियरिंग' की प्रतिभा होनी चाहिए। तभी वह स्वयं उद्बुद्ध होकर दूसरों को उद्बुद्ध कर सकता है और पूर्ण मानव की प्रतिष्ठा कर सकता है, अपने और अपने चारों के प्रोर भौतिक, नैतिक और आध्यात्मिक झाड़-झंखाड़ दूर कर वह एक ऐसे उन्मुक्त और स्वच्छन्द वातावरण का सृष्टि कर सकता है जिसमें मनुष्य मनुष्य के रूप में जीवित रह सके । अस्तु, साहित्यकार होने के नाते हिन्दी के कहानीकारों का मुख्य लक्ष्य मानव की, मानवात्मा की रक्षा करते हुए अपने देश की सभी प्रकार की विकृतियाँ दूरकर नवार्जित स्वतन्त्रता की रक्षा करना होना चाहिए ।
आज के कहानकारों ने समय रहते ही अपना महती उत्तरदायित्व समझा है और बड़ी सूझ-बूझ साथ छोटे-छोटे जीवन खण्डों को अनुवीक्षण यंत्र से देखना प्रारम्भ किया है और स्थानीय प्रचार