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६०/प्राधुनिक कहानी का परिपार्श्व नहीं रह सकता । उसे अपने और अपने चारों ओर के समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करना पड़ता है । लेखक एक व्यक्ति है । व्यक्ति होने के नाते वह अकेला नहीं है। उसका घनिष्ठ सम्बन्ध समाज से,
और अन्ततोगत्वा राष्ट्र से, रहता है। अपने समाज और राष्ट्र में जो कुछ घटित होता है, उसके प्रति कहानी-लेखक या कोई भी कलाकार उदासीन नहीं रह सकता । हिन्दी में शायद ही कोई ऐसा कहानी-लेखक है जो अपने को भारतीय कहने और अपनी कला में 'भारतीयपन' बरतने में संकोच का अनुभव करता हो (उन एक या दो कहानीकारों को अपवादस्वरूप ही समझना चाहिए, जो अपनी प्रेरणा के स्रोत विदेशों में खोजते हैं और चेक अथवा अमरीकन सभ्यता एवं संस्कृति को प्रकाश में लाने का दायित्व' बड़े ईमानदारी से निबाह रहे हैं ! )-विशेष रूप से आज जब स्वतन्त्र भारतीय जीवन की नींव सुदृढ़ बनाना प्रत्येक नागरिक का पुनीत कर्तव्य है। यह ठीक है, कुछ लोग ऐसे भी हैं जो देश की नवाजित स्वतंत्रता और साहित्य-रचना का कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं मानते । उनकी धारणा है कि लेखक तो बस लिखता है । समाज और राष्ट्र में क्या होता है, इससे उसका कोई सम्बन्ध नहीं । भारत में ही. नहीं, यूरोप में भी इस प्रकार की विचारधारा का अस्तित्व पाया जाता है । कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके अतीत और वर्तमान में अन्तर है या जिनके विचारों में सन्तुलन नहीं है या जो मानसिक उलझन में पड़े इधर-उधर भटक रहे हैं । खेद का विषय है कि आज के कहानीसाहित्य के क्षेत्र में कई तरुण किन्तु प्रतिभाशाली लेखक महत्वाकांक्षा की वेदी पर अपनी कला की बलि चढ़ा रहे हैं।
निस्सन्देह वे भूल जाते हैं कि वर्तमान राष्ट्रीय जीवन में उनका क्या और किस प्रकार का सक्रिय भाग हो सकता है । साहित्य और साहित्यकार का आज से नहीं, मानव-इतिहास के आदिम काल से, मानव सभ्यता के विभिन्न विकास-कालों में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। लय, गति, यति, कल्पना आदि का आश्रय ग्रहण कर साहित्य और कला