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८८ /धुनिक कहानी का परिपार्श्व
प्रयास दृष्टिगोचर होता है । ये कहानियाँ हमारे आधुनिक जीवन को झकझोर देने वाली कहानियाँ हैं । इन कहानियों में प्रेमचन्द यशपाल तथा जैनेन्द्र- 'अज्ञेय' की कहानी परम्परात्रों का सुन्दर समन्वयात्मक निर्वाह मिलता है। साथ ही विषय, शैली और विचारों की दृष्टि से उनमें ताज़गी भी हैं । प्रत्येक दृष्टि से हम उनमें से कुछ को - श्रेष्ठ कहानियाँ कह सकते हैं । १९५० से १९६५ तक के १५ वर्षों की स्वातंत्र्योत्तर निर्वाह कहानियों की उपलब्धियों को खोजना चाहें तो • कठिनाई नहीं होगी - मोहन राकेश की 'मिस पाल', कमलेश्र की 'खोयी हुई दिशाएँ, नरेश मेहता की 'अनबीता व्यतीत', राजेन्द्र यादव की "टूटना', अमरकान्त की ' जिन्दगी और जोक', निर्मल वर्मा की 'लन्दन की एक रात', फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम', भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत', मार्कण्डेय की 'हंसा जाई अकेला', कृष्णा सोबती 'की 'सिक्का बदल गया', मन्नू भण्डारी 'की 'आकाश के आईने में', उषा प्रियंवदा की 'ज़िदगी और गुलाब के फूल, सुरेश सिनहा की “एक अपरिचित दायरा, रवीन्द्र कालिया की 'बड़े शहर का आदमी', • ज्ञानरंजन की 'फेन्स के इधर और उधर', तथा सुधा अरोड़ा की एक अविवाहित पृष्ठ' । इन महत्वपूर्ण कहानीकरों की गत पन्द्रह वर्षों की ये उपलब्धियाँ हैं । उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर काल की हिन्दी कहानी को नई दिशा ही नहीं दी, वरन् भाषा को नई प्रर्थवत्ता दी है । चरित्रों को अभिनव यथार्थ के नए परिपार्श्व दिए हैं एवं मानव - मूल्य तथा मर्यादा एवं समकालीन जीवन में सन्निहित आधुनिक संचेतना को अभिव्यक्त कर नवीन स्थितियों को गरिमा दी है। जीवन के परिवर्तित सन्दर्भ एवं परिप्रेक्ष्य और नवीन सत्य उनके माध्यम हिन्दी पाठकों के सम्मुख प्राते हैं
वास्तव में कहानी कला अपने में स्वतन्त्र और पूर्ण कला है और वह जीवन के गम्भीरतम क्षणों को आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखती है । इस कला में जीवन की अद्भुत पकड़ है । उसके - द्वारा जीवन के जटिल से जटिल परत सरलतापूर्वक उघाड़े जाते