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________________ ७६ / श्राधुनिक कहानी का परिपार्श्व करने की धारा के लेखकों ने यहीं भूल की और कोई स्थायी महत्व प्राप्त करने में इसीलिए वे असमर्थ रहे । अन्तस का उद्घाटन करना M अथवा अवचेतन मन के रहस्य की गुत्थियों को सुलझाने की प्रवृत्ति एक अंग हो सकती है, अपने आप में पूर्ण नहीं । इसीलिए उनका साहित्य एकांगी ही बना रहा है । आत्म-परक विश्लेषरण की धारी ने शिल्प-संबंधी नए-नए प्रयोग किए, यह ती स्वीकारना ही होगा। कहा जा सकता है कि इस धारा के पलायनवादी लेखकों ने कहानी की दृष्टि जीवन से हटाकर उसे कलावादी बना दिया । जीवन से असम्पृक्त होकर उसे निर्जीव बनते भी देर नहीं लगी, यह भी सत्य है । इसके साथ ही सांकेतिकता, प्रतीकों के प्रयोग एवं बौद्धिकता के आग्रह से कहानी जटिल से जटिलतर होती गई और सामान्य पाठकों के लिए दुरुह होने के कारण अपने आप में सीमित होती गई । यहाँ यह बात अपने आप में बड़ी मनोरंजक लगती है कि हालाँकि 'नई कहानी ने इन बातों को अस्वीकारा है और इस परम्परा के प्रति "नई' कहानी को एक विद्रोह के रूप में मान्यता दिलाने का प्रयत्न किया है, पर जब मैं निर्मल वर्मा की 'दहलीज़', 'कुत्ते की मौत', 'पराए शहर में', नरेश मेहता की 'चाँदनी', 'अनबीता व्यतीत' तथा 'निशाऽऽजी', मोहन राकेश की 'कई एक अकेले', 'पाँचवे माले का फ्लैट' तथा 'फौलाद का आकाश', राजेन्द्र यादव की 'शहर के बीच एक वृक्ष', 'किनारे से 'किनारे तक', तथा 'पुराने नाले पर नया फ्लैट,' कमलेश्वर की 'तलाश', 'पीला गुलाब', 'खोयी हुई दिशाएँ', अमरकान्त की 'खलनायक', 'श्रीकान्त वर्मा की 'टरसो', सुरेश सिनहा की 'पानी की मीनारें', 'नीली धुंध के आरपार' तथा 'कई कुहरे, रवीन्द्र कालिया की 'नौ साल छोटी पत्नी', 'त्रास', ज्ञानरंजन की 'शेष होते हुए', 'पिता' तथा 'सीमाएँ' आदि कहानियाँ पढ़ता हूँ, तो इस दावे पर हँसी ही आती है । ये कहानियाँ न तो कथ्य में और न कथन में इस आत्म-परक विश्लेषरण की धारा से भिन्न हैं, और मजे की बात यह है कि इन्हें प्रगतिशील दृष्टिकोण,
SR No.010026
Book TitleAadhunik Kahani ka Pariparshva
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size18 MB
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