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आधुनिक कहानी का परिपार्श्व / ७५
होता है और उसकी कार्य-परिधि का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है । वह अधिक-से-अधिक व्यक्तियों से अपना सम्पर्क बढ़ाकर अपने परिचय का दायरा विराट करने के प्रति आग्रहशील रहता है। इस प्रकार का व्यक्ति जब साहित्य में आता है, तो व्यापक जीवन परिधि और अधिक पात्रों को समेटकर विराटता का बोध स्थापित करना चाहता है । इन तीनों विद्वानों के अतिरिक्त जां-पाल सात्र, कामू तथा काका आदि ने भी इस धारा को अत्यधिक प्रभावित किया । फलस्वरूप हिन्दी में भी आत्म-परक विश्लेषण की धारा का सूत्रपात हुआ ।
ऊपर मैं यह स्पष्ट कर चुका हूँ कि इस धारा की प्रमुख विशेताएँ क्या हैं । इस धारा के प्रचलन से कहानी साहित्य स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ी और कहानी का क्षेत्र मनुष्य जीवन अथवा उसका कर्म-क्षेत्र न होकर अन्तर्जगत और मानस हो गया । यदि फॉयड के ही ढंग से सोचें, तो कोई भी मनुष्य स्वस्थ नहीं है । उसके अवचेतन मन में हीनता की ग्रंथियाँ, कुरुपताएँ, हिंसा, द्वेष, ईर्ष्या और वासना भरी हुई है. जिसे भुलाकर मनुष्य ऊपर से शालीन और गम्भीर बने रहने का प्रत्यन करता है । जब कहानीकारों ने इस अवचेतन मन के रहस्य की गुत्थियों को सुलझाने को ही अपना उद्देश्य बना लिया, तो स्वाभाविक रूप से विघटनकारी शक्तियों को प्रश्रय मिला और ध्वंसोन्मुख पात्रों का निर्माण हुआ । इससे साहित्य का वास्तविक अर्थ तो समाप्त हो गया, उसके स्थान पर कलाकार की वैयक्तिक कुण्ठा, वर्जना एवं निराशा तथा अतृप्त वासना सामने आने लगी और साहित्य की एक प्रकार से छीछालेदर की जाने लगी । कलाकार एक महती उद्देश्य से प्रेरित होता है और उसमें सामाजिक दायित्व के निर्वाह की भावना के साथ आस्था, संकल्प, मानव मूल्यों को समझने की क्षमता और एक प्रगतिशील दृष्टिकोण का होना आवश्यक होता है। बिना इसके वह भटकता रहता है और किसी संदेश का वाहक होने या यथार्थ का उद्घाटन करने में असमर्थ रहता है । आत्म-परक विश्लेषण
किसी जीवन-सत्य एवं